वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1387
From जैनकोष
जयजीवितलाभाद्या येऽर्था: पूर्वं तु सूचिता: शास्त्रे।
स्युस्ते सर्वेऽप्यफला मृत्युस्थे मरुति लोकानाम्।।1387।।
जो पदार्थ पहिले बताये गए हैं लाभ के पक्ष के जीवन के वे सब यदि श्वास टूटते समय में पूछे जायें तो सब निष्फल हैं। एक खास बात जानने की यह है कि जब उत्कृष्ट निर्विकल्प उच्च ध्यान होता है योगी का तो उच्च ध्यान के समय में उस योगी के किसी एक स्वर से श्वास नहीं चलती। न बायें स्वर से और न दाहिने से, किंतु मंद-मंद रूप में दोनों ही स्वरों से श्वास निकलती है और प्राय: नाक के मल स्थान में जो दोनों नाक के बीच है वहाँ उस श्वास का विश्राम होता है, ऐसी स्थिति में समतापरिणाम, समाधिभाव, विशुद्ध ध्यान ठहरता है। यह भी एक शरीर की स्थिति से आत्मा के भावों का एक निमित्त संबंध है और प्राय: ऐसी आप कभी परीक्षा भी कर सकेंगे कि जिस समय बहुत शांत चित्त होगा कोई व्यग्रता न हो, उदारता हो, समता हो, रागद्वेष की लहरें न उठ रही हों, पर पदार्थों में मोह राग न बसाया जा रहा हो, ऐसी स्थिति में स्वर एक सम चलेगा, मंद चलेगा और किसी भी एक स्वर का जब पक्ष न होगा। ऐसी स्थिति योगीश्वरों की होती है जब कि निर्विकल्प ध्यान कर रहे हों। ऐसे स्वर के समय में ध्यान की उत्कृष्टता बनती है यों कह लीजिए। जैसे मन प्रसन्न न हो, चिंता रहित न हो तो ध्यान की सिद्धि नहीं बनती, ऐसे ही जब स्वर सम न हो तो उस समय ध्यान की उत्कृष्टता नहीं बनती। ऐसे स्वर और ध्यान का निमित्तनैमित्तिक संबंध बन जाता है। ऐसे ध्यान का जो अभ्यास करता है वह पुरुष पद्माशन से परीक्षा कर बड़ी दृढ़ता से बैठकर और अपने शरीर को सीधा रखकर जो श्वास को प्राणायाम से भरकर धीरे-धीरे छोड़ी जाती है उस परिस्थिति मेंइस ध्यानी पुरुष की श्वास नाड़िका एकदम सीधी होने से एक तो लौकिक लाभ यह है कि शरीर स्वस्थ होता है, रोगादिक सब भाग जाते हैं फिर उस समय श्वास से यह श्वास जब निकलती है तब वह श्वास अगले भाग की नाड़ी में न जाकर तालू के भाग तक वह श्वास आती है, फिर तालू के बहुत पतले-पतले छिद्र से वह श्वास थोड़ी-थोड़ी निकलती है। ऐसी भी स्थिति योगी पुरुषों की होती है। इसी से कहते हैं कि अब यह योगी मूर्छा स्थान में पहुँच गया है। ये सब बातें ध्यान के समय स्वयमेव होती है। कोई प्राणायाम करता है, अभ्यास करता है, परिश्रम करता है तब उसका प्रभाव प्रकटहोता है पर तत्त्वज्ञानी पुरुष को जिसका ज्ञान वैराग्य विशुद्ध है उसके वह प्रभाव स्वयमेव प्रकट होता है। तत्त्वज्ञान होने से रागद्वेष की वासना न रहने से स्वयं ही ऐसी समता में स्वर चलता है और उस श्वास से शरीर का भी लाभ होता है और अध्यात्म लाभ भी होता है। उस ही लाभ के मार्ग में चलने वाले योगी कैसे स्वरविज्ञान प्राप्त कर लेते हैं उसकी बात यहाँ चल रही है। जो स्थिर कार्य हैं, शुभ कार्य हैं उन कार्यों को बाम स्वर के समय करे तो उसमें कुछ विशेष अनुरोध ऐसा होता है कि जिससे कार्य सिद्धि हो, और जो चलित कार्य हैं, क्षणिक कार्य हैं, भोजन आदिक जैसे कार्य हैं वे दाहिने स्वर से किए जायें तो वे भी अपना अच्छा प्रभाव दिखाते हैं। मूल में बात समझने की इतनी ही है। फिर इसमें पूर्ण नियम कुछ नहीं है अतएव उसकी और-और भी सूक्ष्मता से बातें बतायी जा रही हैं। यह सब वर्णन उसी सिलसिले में चल रहा है कि किसी के इष्ट की सिद्धि होगी या नहीं, यह एक स्वरविज्ञान से बता दिया जाता है। यों कुछ प्रश्न और उनके उत्तर समाधान दिए गए हैं। जैसे मेघ आदिक का बरसना या कुछ पूछना― इन सबके उत्तर इस स्वरविज्ञान में आ जाते हैं।