वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1389
From जैनकोष
वरुणे त्वरितो लाभश्चिरेण भौमे तदर्थिने वाच्यम्।
तुच्छतर: पवनाख्ये सिद्धोऽपि: विनश्यते वह्नौ।।1389।।
जलमंडल का पवन होने पर तो शीघ्र ही लाभ कहो। अपनी श्वास यदि जलमंडल की चल रही हे और उससे कोई किसी असाध्य रोग की बात पूछे कि इसको लाभ होगा क्या? तो उत्तर दो कि शीघ्र लाभ होगा और पृथ्वी का पवन हो तो कहो कि बहुत काल में लाभ होगा, कुछ समय लगेगा और पवनमंडल का श्वास हो तो लाभ नहींहोता, बल्कि बिगाड़होता है। यह चार श्वासों की पहिचान कुछ मुश्किल है, किंतु पहिचान हो जाय तो यह सब शुभ अशुभ लाभ की बात को भी सुगमतया बता सकता है। पृथ्वीमंडल की श्वास का प्रभाव अष्ट अंगुल तक बताया है, जलमंडल का प्रभाव 12 अंगुल तक बताया है और पवनमंडल का प्रभाव 8 अंगुल तक और अग्निमंडल का प्रभाव 4 अंगुल तक अर्थात् नाक से 4, 6, 8, 12 अंगुल दूर तक श्वास आये तो उससे उन मंडलों की पहिचान होती हे, साथ ही वह श्वास किस विधि से बह रही है, किस ओर जा रही है, इससे भी इस मंडल का निश्चय होता है। तो जब जलमंडल का श्वास बह रहा हो उस समय कोई पूछे तो कहना चाहिए कि इसको शीघ्र लाभ होगा और अग्निमंडल का श्वास जो चार अंगुल दूर तक बहता है और तितरबितर कभी किसी कोने से, कभी किसी कोने से तो उस समय पूछे हुए प्रश्न का उत्तर होगा कि लाभ नहीं है।