वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1499
From जैनकोष
त्रिप्रकारं स भूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थित:।
बहिरंत: परश्चेति विकल्पैर्वक्ष्यमाणकै:।।1499।।
यह आत्मा समस्त देहधारियों में बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा― ये तीन भावों से व्यवस्थित है। एक-एक में भी तीन बातें लगाया या भिन्न-भिन्न आत्मावों में तीन बातें लगाया? भिन्न-भिन्न आत्मावों में तो तीन बातें ऐसी स्पष्ट हैं कि लो यह जीव तो बहिरात्मा है और यह जीव अंतरात्मा है और यह जीव परमात्मा है। भिन्न-भिन्न दिख रहे हैं। जो देह और जीव को एक मानता वह बहिरात्मा है। जो देह से भिन्न अपने आपमें चैतन्यस्वरूप का परिचय करता हो वह अंतरात्मा है। समस्त कर्ममलों से छूटकर जो केवल एक शुद्ध विकास में हो वह परमात्मा है। यह तो है भिन्न-भिन्न जीवों में बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के खोजने की बात। अब एक जीव में देखें जो प्रथम स्थिति है अथवा अंतरात्मा की स्थिति मान लीजिए, यह जीव अंतरात्मा है। बहिरात्मा था और अपने गुणों के शुद्ध विकासपूर्वक यह परमात्मा होगा। तो एक ही आत्मा में शक्ति व्यक्ति की अपेक्षा आत्मावों को तीन प्रकार से निरखना चाहिए। तो जो बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा सबमें व्यापक है ऐसा यह आत्मतत्त्व है, जिसका परिचय पाने पर मुक्ति का मार्ग प्राप्त होगा। हम मुक्ति को बाहर नजर डालकर क्या देखें, लोक के अंत में या किसी जगह हम क्या देखें― प्रथम तो यही निर्णय कर लें कि जितना-जितना हम विषयकषायों की भावना से मुक्त हो रहे हैं उतना ही हम एक शांति के मार्ग में बढ़ रहे हैं। अनुभव करें ऐसा। तो हमें चाहिए कि बहिरात्मापन को छोड़ें, अंतरात्मा बनें और अंतरात्मा बनकर परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का उद्यम करें। बहिरात्मपन मेरा स्वरूप नहीं है। परमात्मा मेरा स्वरूप है। इस अंतरात्मा में ही मेरे स्वरूप की दृष्टि लगो, मैं सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र हूँ। यह है अत: अपने भीतर देह का भी भान छोड़कर केवल ज्ञानमात्र मैं आत्मा हूँ। इस प्रकार अपने आपका निर्णय बनायें और इस आत्मतत्त्व की सुधपूर्वक अपना जीवन बितायें। मोहरागद्वेष का प्रसंग कम से कम हो, ऐसी क्षण गुजरें तो समझिये कि हम बहुत बड़ा लाभ पा रहे हैं। उस लाभ की उपमा संसार के किसी पदार्थ से नहीं की जा सकती है, क्योंकि वह खुद में खुद के भान से खुद प्रकट होता है। ऐसी आत्मतत्त्व की रुचि जगती हो तो उस चैतन्यस्वरूप की दृष्टि करें। जान जानकर सोच सोचकर उस प्रकार के शब्दों को अपने में बोल-बोलकर येन केन प्रकारेण आत्मा की सुध बने तो वह है शांति पाने का उपाय। तत्काल शांति मिले। जैसे सबसे निराले ज्ञानमात्र को देखने में लगे तो वहाँ एक आत्मा ही ज्ञान में आयगा। सब जगह हम अपनी सुध बना सकते हैं। जितने क्षण हम अपनी सुध बनायें उतने क्षण आत्मलाभ है और शेष क्षण जबकि अपना उपयोग परपदार्थों में है तब समझें कि वहाँ हम आत्मघात कर रहे हैं। अपने आपके उपयोग से, अपने आपकी कुबुद्धि से हम अपने आपका घात किया करते हैं। पर की दृष्टि में है आत्मघात और आत्मतत्त्व की दृष्टि में है आत्मरक्षा। हम आत्मरक्षा के लिए बढें और आत्मघात से बचे, ऐसी हमारी कोशिश होनी चाहिए।