वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1503
From जैनकोष
कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदंबकात्।
आत्मानमभ्यसेद्योगी निर्विकल्पमतींद्रियम्।।1503।।
अब यहाँ कोई शंकाकार प्रश्न करता है कि यदि आत्मा ऐसा है कि निर्लेप है, निष्कलंक है तो आत्मा को देहादिक के समूह से पृथक् करें और ऐसे आत्मा को इन देहादिक बाह्य वस्तुवों से पृथक् करके ये इंद्रियाँ हैं ऐसा ध्यान कैसे करें यह प्रश्न किया है। इस देह से भी निराला करके मैं अपने आपमें बसे हुए परमात्मा को जानूँ तो उसके ध्यान का उपाय क्या है? जो शंका कर रहे हैं उसका निवारण और सिद्धि करने की आराधना है। तब प्रश्न क्या है कि जो भेदभाव विकल्प तरंग आदि से रहित है ऐसा अतींद्रिय आत्मा मेरे ध्यान में कैसे आये? इसका उत्तर दीजिए।