वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1510
From जैनकोष
स्वात्मेतरविकल्पैस्तै: शरीरेष्वलंबितं।
प्रवृत्तैर्वंचितं विश्वमनात्मन्यात्मदर्शिभि:।।1510।।
अपने शरीर में तो अपना आत्मा माना और पर के शरीर में पर को आत्मा माना, इस तरह शरीर में अवलंबन रूप प्रवर्ते हुए विकल्पों में से जो अनादि अनात्मतत्त्व है ऐसे अज्ञानी जनों ने इस लोक में वंचित कर दिया। लोक में जो होड़ मच रही है नामवरी नेतागिरी की उसमें और मर्म क्या है? सिवा इसके कि वे समझते हैं कि वे सब जीव हैं, मैं यह हूँ, मेरी लोक में इज्जत रहे, पोजीशन रहे, इस प्रकार से परतत्त्वों में वे आत्मबुद्धि करते हैं और पापबंध करते हैं। अन्यथा तो लोग हाथ जोड़कर कैसे आप हमारे रक्षक बनें, मेंबर बनें तो ठीक है। यहाँ तो इच्छा प्रकट करते, उसके लिए खर्च करते, लोगों से वोट की भीख मांगते, यह उनका कोई बड़प्पन नहीं है। बड़प्पन तो लोगों के बनाने से होता है, स्वयं बनाने से नहीं होता है। वहाँ खेद खिन्न होना पड़ता है। जीते तो हारे, हारे तो जीते। दुनिया जो नाम की, धन की होड़ लगा रही है, संतान परिवार आदिक से अपना महत्त्व बता रहे हैं यह सब अज्ञान का माहात्म्य हे। तो जिसे अपने आपकी नामवरी चाहिए उसे अनेक यत्न करने पड़ते हैं।