वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1520
From जैनकोष
यज्जनैरपि बोध्योऽहं यज्जनान्बोधयाम्यहम्।
तद्विभ्रमपदं यस्मादहं विधुतकल्मष:।।1520।।
लोगों के द्वारा मैं संबोधने योग्य हूँ। लोगों के द्वारा मैं समझाया जाने योग्य हूँऔर मैं लोगों को संबोधता हूँ ऐसा भी जो विकल्प है वह भी भ्रममात्र है क्योंकि मैं पाप से रहित हूँअर्थात् यह जो आत्मतत्त्व सहज चैतन्यस्वरूप निष्कलंक हूँ। इसे कौन संबोधे? और यह किसको संबोध? इस प्रसंग में ज्ञानी पुरुष ने अपने उपयोग में जो आनंदपद निरपेक्ष सहजस्वरूप चैतन्यमात्रभाव को लिए है और उसे ही मैं मानता है, उसे ही उस रूप अनुभव है। ऐसी स्थिति में ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है कि यह मैं न संबोधनरूप हूँ न संबोधने वाला हूँ, वह तो निष्काम, निश्चल और स्वतंत्र चैतन्यप्रकाशमात्र है। जब ऐसे सहजस्वरूप पर दृष्टि दृढ़ हो जाती है तब फिर इस जीव को कोई कलंक अथवा कोई विकल्प की बात नहीं रहती। जब आत्मा अपने आत्मस्वरूप में मग्न हो गया फिर उसे कष्ट क्या? जैसे एक भाई ने शंका की थी कि कोई पुरुष कच्ची गृहस्थी को छोड़कर विरक्त हो जाय, अपनी चाहने वाली माँ स्त्री पुत्रादिक को छोड़कर विरक्त हो जाय तो क्या उसे ऐसा करना चाहिए? अरे उस विरक्त पुरुष को जब यह अनुभव हो गया कि मैं चैतन्यस्वरूपमात्र हूँऔर इस ही आनंद में वह तृप्त है तो उसे कोई विकल्प उठता ही नहीं। जिसमें विकल्प उठे उसमें कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक होता है।थोड़ा दृष्टांत के लिए ऐसा समझें कि जब किसी का विवाह होता है तो पति पत्नी में 7 प्रतिज्ञाएँहो जाती हैं जो कि उनके धर्म और जीवन से संबंधित हैं। उनमें मानो पति ने यह प्रतिज्ञा की कि में आजीवन पत्नी की रक्षा करूँगा और पत्नी ने मानो यह प्रतिज्ञा की कि मैं आजीवन अपने पति के अतिरिक्त किसी में चित्त न दूँगी। दोनों में बंधन हो गया पर पति मानो विरक्त हो जाय, पति का मोह गल जाय, पति निर्ग्रंथमुनि बन जाय तो क्या उसके नियम भंग करने में दोष आता है? नहीं, क्योंकि वह नियम मोह में था, जब मोह गल गया तो वह नियम भी गल गया। इसी कारण मुनि का नाम द्विज है। द्विज लोग ब्राह्मण को कहते हैं पर द्विज का अर्थ जो दुबारा पैदा हुआ हो। जैसे कोई मनुष्य मरकर दूसरा भव पाये तो अब इस मनुष्य का कोई संबंध तो नहीं रहा। कुछ भी नियम किया हो, प्रतिज्ञा की हो और अपने जीवन में उसने पूरा न कर पाया हो तो कोई उसे दोष नहीं आया। दूसरा जन्म हो गया। ऐसे ही मुनि होने के मायने दूसरा जन्म हुआ। जैसे यह मनुष्य मरकर कुछ बन जाय तो अब उसका शत्रु कहाँरहा? ऐसे ही जब यह मुनि बन गया तो इसके अब गृहस्थी कहाँ रही, दोष क्या रहा? तो यह मोह में किया गया नियम मोह तक ही है। जहाँमोह टूटा वहाँ फिर आत्मा का शुद्ध नियम चलता है। विकृत नियम फिर नहीं चलता। ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है कि मैं जो एक चैतन्यप्रकाशमात्र हूँवह न तो किसी को समझाना है और न किसी के द्वारा समझाया जाता है, वह तो जो है सो है। जान जाय तो अनुभव कर ले। जो न जाने, बाह्यपदार्थों में तो रसतो मैं लेकर दु:खी हो और बाह्य में जन्ममरण की परंपरा बढ़ो तो एक अभेदरूप मैं आत्मा हूँ चित्स्वरूपमात्र ऐसा सामान्यरूप का व्याख्यान सुनकर कुछ मतावलंबियों ने यह मान लिया कि आत्मा में ज्ञान होता ही नहीं। ज्ञान तो प्रकृति का धर्म है, पौद्गलिक तत्त्व है, भौतिक चीज है। उस ज्ञान का चेतन से संबंध होता है तो यह चेतन ज्ञानी कहलाता है अर्थात् वह चेतनसामान्य इस ज्ञान से विलक्षण है। मैं चैतन्यमात्र आत्मा हूँ जिसे न कोई दूसरा समझाता और न किसी दूसरे को समझाता। जब मैं दूसरे को समझाता दूसरा मुझे समझाता है ऐसा मानना भ्रम है, विकल्प है। अब ज्ञानी ने समझा कि मैं आत्मा निष्कलंक हूँ, ये वचनव्यवहार से परे हैं, तब मैं किससे बोलूँ किसको समझाऊँ, मैं तो एक इस चैतन्यरस का ही स्वाद लूँ।