वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1522
From जैनकोष
जातसर्पमतेर्यद्वच्छृंखलायां क्रियाभ्रम:।
तथैव मे क्रिया: पूर्वास्तन्वादौ स्वमिति भ्रमात्।।1522।।
अतीत भ्रम पर ज्ञानी का चिंतन― जैसे जिस पुरुष को रस्सी में अथवा साँकर में सर्प की बुद्धि बनी है तो उसकी क्रिया में भी भ्रम हो जाता है अर्थात् विभ्रमरूप, मायारूप उसकी क्रिया होने लगती है। इसी प्रकार शरीर आदिक में स्व का भ्रम हो गया उस भ्रम के कारण पहिले हमारी विभ्रमरूप क्रिया हुई थी। ज्ञानी पुरुष विचार कर रहे हैं, जब ज्ञान जग गया तब अपनी पहिले की अज्ञानदशा पर एक पछतावा कर रहा है। यह पछतावा उसे क्लेशरूप नहीं हो रहा है, किंतु आनंद का ही प्रदाता हो रहा है। आप ऐसा सोचेंगे कि कोई पछतावा ऐसा भी होता है जो कुछ आनंद से भी संबंध रखता हे यह एक विलक्षण बात है। कोई पछतावा में शोकातुर हो जाता है, रंज में डूब जाता है, पर ज्ञानी जीव को अपनी अज्ञान दशा पर पछतावा हो रहा है आनंद को छूती हुई परिणति के साथ।
दृष्टांतपूर्वक अतीतभ्रम पर ज्ञानी के विचार का वर्णन― जैसे कोई पुरुष को स्वप्न में ऐसा दृश्य दिख जाय कि हम जंगल में जा रहे हैं, जाते-जाते कहीं एक तालाब में गिर पड़े हैं। वहाँ कोई एक मगर झपट रहा है उसने मेरी टाँग को पकड़ रख है। मान लो ऐसा ही स्वप्न आ जाय तो उस स्वप्न में उसकी कितनी बुरी दशा हो रही है? दु:खी हो रहा है और कुछ हिम्मत बनाकर उस समय वह जग जाय तो इस जगने पर झट वह ख्याल करता है कि हूँ मैं कहाँ क्योंकि पहिले मैं तालाब में डूबा जा रहा था, मगर ने पैर पकड़ रखा था। ओह ! मैं तो घर में पड़ा हूँ, उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। साथ ही यह पछतावा भी हुआ कि कैसा स्वप्न आया जो दु:खी हुआ। यह पछतावा आनंद से संबंध रखता है। वैसे ही यों समझिये कि आत्मा को पहिले ज्ञानदशा में, शरीर आदिक में ‘यह मैं हूँ’ ऐसा भ्रम करके जो उसे क्लेश हुआ था, क्रिया भ्रम हुआ था उसके अब यह पछतावा हो रहा है। कब? जब ज्ञानदशा प्रकट हुई है। आत्मा को आत्मारूप से जाना है, समझा है। यह तो कष्टरहित निराकुल निष्कंप चैतन्यमात्र है ऐसा समझने पर कुछ जब याद आता है ज्ञान ही तो है, पहिली बात। जब कुछ ख्याल में आता है तो उनका जो पछतावा हो रहा है वह पछतावा शोक में डुबाने वाला नहीं है, किंतु भार से हटा हुआ है। जिसको सांकल में सर्प की बुद्धि हुई ऐसे पुरुष को क्रियाबुद्धि हुई उसी प्रकार उसके शरीर आदिक में आत्मबुद्धि रूप भ्रम का भेदविज्ञान होने से पहिले भ्रमरूप कार्य अनेक हुए हैं ऐसा ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है। जरा अनेक लोगों को वर्तमान में भी कुछ निरखना चाहिए कि हमारी क्रिया भ्रमरूप है या नहीं। यदि हमारी भी समझ में आ जाय वास्तविक ढंग से कि हमारी क्रिया भ्रमरूप है तो उसका भ्रम हट गया, हट रहा, हटने ही वालाहै ऐसा समझना चाहिए।
भ्रम वाले पुरुष को भ्रम का पता नहीं हुआ करता। जब भ्रम से हटने की अवस्था होने को होती है या भ्रम से हटा हो तो उसे पता पड़ता है कि यह है भ्रम। तो अपने आपको निरखिये कि हम भ्रम से चल रहे हैं या नहीं। अपने-अपने चित्त का सबको पता है। घर में रहने वाले स्त्री पुत्रादिक को आप क्यों अपना मानते हैं? यह भी क्या कोई ढंग है? आपको उनके प्रति यह सत्य वोट कैसे हैं कि जीव स्वतंत्र हैं, यह भी पृथक् है, में भी पृथक् हूँ। यह अपने में परिपूर्ण है, मैं अपने में परिपूर्ण हूँइस प्रकार की परिपूर्णता चित्त में है या नहीं? सब बातें अपने आपके चित्त में मिल जायेंगी और समाधान भी हो जायगा। यह बात किसी से पूछकर उत्तर लेने की नहीं होती। खुद ही अपने आपमें निर्णय कर लें। यदि पर की ओरआकर्षण है तो समझ लीजिए कि बहुत बड़ी विपत्ति में हैं। सांसारिक सुखों के साधन मिलाकर विभाव छोड़कर अपने शारीरिक आराम के साधन जुटाकर अपना सुख मान लिया तो इतने से इस जीव का क्या पूरा पड़ता है? अजीव है, सत्भूत है। रहेगा यह, किसी न किसी पर्याय में चलेगा। आगे की बात तो सोचिए एक भव के सुख से पूरा न पड़ेगा।अपने को अपने निकट बैठालकर समझायें। आत्मा का उपयोग बाहरी पदार्थों में लग रहा है तो इससे बढ़कर विडंबना और आपत्ति किसी को नहीं कहा जा सकता।
अणुव्रत में एक परिग्रह परिमाण नामक अणुव्रत है, जिसमें इस श्रावक ने यह नियम लिया है कि हम इतना परिग्रह रखेंगे। उस प्रमाण से अधिक वाला कोई धनी पुरुष दिख जाय। जैसे उसने एक लाख का प्रमाण रखा है और करोड़पति आँखों दिख जाय तो उस श्रावक के चित्त में एक प्रकाश आता है। जो वास्तविक मायने में सम्यग्दृष्टि श्रावक परिग्रह प्रमाण वाला है उसके परिग्रह की बात कह रहे हैं, यह कितना विपदा में फँसा है, कितना पर की ओर फँस गया है, कितना पर में लग गया है? कृपापात्र है। इस प्रकाश के साथ बड़े धनिकों को देखता है परिग्रह परिमाण वाला, न कि यह हमसे बड़ा है, और मैं छोटा हूँ। यह कल्पना नहीं करता है सम्यग्दृष्टि श्रावक परिग्रह परिमाण अणुव्रती। तो आप समझिये कि बाह्य जड़ पदार्थ पत्थर ढेला जिनकी कोई कीमत नहीं उनमेंदृष्टि लगाकर उन्हें सर्वस्व मानकर हम अपनी शांति भंग करते हैं, अशांति बनी रहती है यह हमारा सन्मार्ग नहीं है, कुमार्ग है, इससे निवृत्त होकर अपनी ओर आयें।
देखिये व्यापारी लोग बोलते हैं कि सोने का क्या भाव है, गेहूँ का क्या भाव है? जो बोलते हैं उसको उसी रूप में कोई सुनना नहीं चाहता। वे बोल रहे हैं यह किसोने के संबंध में पब्लिक का क्या ख्याल है? भाव मायने ख्याल, परिणाम। सोने में कुछ भाव नहीं रखा है। वे तो सब एक समान हैं, पत्थर हैं, धातु हैं, सब एक चीज हैं। इस ओर से देखें तो। उसका पता तो ज्ञानी पुरुष को रहता है। लोग बहुत सही बोल रहे हैं, पर सुनने वाले दूसरा अर्थ लगाते और बोलने वाले दूसरा अर्थ लगाते। भाव पदार्थों में नहीं है पर गेहूँ, चावल, चाँदी, सोना आदि के प्रति लोगों का क्या भाव है, क्या ख्याल है, ऐसा पूछा जा रहा है। तो एक मनुष्य ने महत्त्व का भाव नहीं बनाया और एक मात्र उसे ज्ञेय कर लेता है। यह तो भाव बनायें अपना, अपने विभावों का महत्त्व तौलें, अपने उस सहज ज्ञायकस्वरूप का दर्शन करें, उसमें ही तृप्त रहें तो यही है हमारा सन्मार्ग। जीव को विषय के साधनों से तृप्ति नहीं हुआ करती। जैसे अग्नि ईंधन से तृप्ति नहीं पाती ऐसे ही इन विषयों के साधनों के मिलने से तृप्ति नहीं होती। तृप्ति का कारण तो एक निज चैतन्यस्वरूप का स्वाद है। अपने आपको ज्ञानमात्र बनाये बिना, ज्ञानानुभव किए बिना अपने आपका जैसा निर्णय विविक्त केवल चैतन्यमात्र स्वरूप है, जो सहजस्वभाव है ऐसा अपने को ज्ञान कर ले तो तृप्ति होगी। बाहर में दृष्टि रखकर कोई तृप्त होना चाहे तो तृप्त नहीं हो सकता। जैसे कोई यह सोचे कि आज हम पेटभर खा लें, फिर मस्त हो जायेंगे, सदा के लिए भोजन से छूट जायेंगे तो क्या उसका यह ख्याल सच्चा है? किसी भी प्रकार का भोगोपभोग हो, ऐसा सोचियेगा कि इसे मन भर भोग लें, फिर बाहर में यह कष्ट न रहेगा। तो जहाँ मन में भोग भोगने का भाव है वहाँ मन के भोग क्या सदा बने रहेंगे? वहाँ भी तृप्ति नहीं हो सकती है। और बड़ा दुर्लभ से दुर्लभ समागम मिलाहै―जैन शासन का पाना, अहिंसा का वातावरण मिलना जो दुर्लभ से दुर्लभ समागम हैं उनकी उपधारणा की शक्ति और अपने आपके स्वरूप की ओर देखने का बल जो कुछ यह प्राप्त हुआ है यह सब सफल हो जायगा यदि ज्ञान और वैराग्य का आदर किया जाता।
देखिये कि यदि इस जड़ वैभव का ही आदर रहा तो बहुत-बहुत श्रेष्ठ समागम पाकर भी समझियेगा कि हमने कुछ नहीं किया। जैसे एक अहाना में कहते हैं― कहाँ गए थे? दिल्ली। वहाँ क्या किया? भाड़ झोंका। अरे भाड़ ही झोंकना था तो गाँव में क्यों नहीं रहे? यों ही कहाँगए थे? मनुष्यभव में, श्रावक कुल में, जैनशासन में। क्या किया? विषयों को भोगा। यदि विषयों को भोगने के लिए ही मनुष्यभव पाया था तो गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि के भव कौनसे बुरे थे? वहाँ भी तो यही चीजें थी। तब समझियेगा कि मनुष्यभव पाकर कोई विविक्त लाभ लेने की बात मन में होना चाहिए। इस वैभव के पीछे मन परेशान हों, यह तो छाया की तरह पीछे चलने वाला है। मेरा काम हे कि सत्य का आग्रह करें, असत्य को सत्य नहीं समझते, माया को परमार्थ नहीं जानते। सत्य समझना एक ही हमारा काम है। उसके ही लिए मेरा जीवन है ऐसा निर्णय करके चलिए और संसार में फिर जो स्थितियाँ आयें, उन स्थितियों को तुच्छ गिनकर उनमें रंच भी घबड़ाहट न करें। क्या होगा मेरा इस लोक में, मेरी आजीविका रहेगी या नहीं? अरे क्या शंका करना, ज्यादा रहेगा तो वहाँ व्यवस्था रहेगी, कम रहेगा तो वहाँ व्यवस्था रहेगी। न रहेगा तो दो जगह से रोटी माँगकर पेट भर लेंगे, किंतु अपने आपका ज्ञानदर्शन रूप जो महान कार्य है हमारे लिए तो कर्तव्य वह है, अन्य नहीं है।
भैया ! किस बात की शंका करना? जहाँ जितनी अपने आपके आत्मत्व की दृढ़ता है वहाँ पर लोक का क्या भय? परलोक क्या किसी दूसरे के हाथ की दी हुई चीज है? क्या किसी दूसरे कर्ताधर्ता के हाथ की बात है? परलोक क्या चीज है? हमारा आगे का परिणमन ही परलोक है और फिर एक खुले रूप में इस मनुष्यपर्याय में जो हमारा परिणमन है वह हमारा परलोक है। वह किसी दूसरे के हाथ की बात नहीं है कोई ईश्वर करने नहीं आया है। कर्मोदय की बात तो यह आयुकर्म के उदय से होता है परलोक। इस मनुष्य पर्याय में नवीन आयु कर्म का बंध अपनी आयु के 60 वर्ष तक तो होता नहीं। मान लो जिसकी 90 वर्ष की आयु है, 60 वर्ष तक तो होता नहीं, शेष रहे 30 वर्ष तक नहीं होता।30-30 वर्ष के तीन टुकड़े करके 3 भागों में न होगा, 10 वर्ष के तीन भागों में न होगा। ऐसा ही होता है आयुबंध। एक अपने आपमें बल बढ़ाने के लिए यह समझ लीजिए कि अभी आयु का बंध नहीं हुआ। अब शांत रहें, अपने आत्मा के दर्शन करें। वैभव का मोह हटावें, सम्यग्ज्ञान का आदर करें। निश्चय से परलोक अच्छा होगा।और जैसे यह बताया गया है करणानुयोग के शास्त्रों में कि जिसका नारक, तिर्यंच और मनुष्य आयु का बंध होगा उस पुरुष के महाव्रत का परिणाम नहीं होता। यदि देव आयु का परिणाम हो तो अणुव्रत महाव्रत बन सकता है। उससे यह भी तो निष्कर्ष निकालें कि जो ज्ञान की आराधना में रहना चाहता है वह वस्तु के सम्यक स्वरूप की जिज्ञासा रखता है जिसका उपयोग ऐसे मोक्षमार्ग में लगने वाले शुभसाधनों की ओर है उस पुरुष का परलोक कोई बुरा नहीं होने का। अपने चित्त में दृढ़ता रखें, मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए कदम पर कदम बढ़ाते रहें। वह कदम है ज्ञान का कदम पुरुषार्थ। जैसे व्यापारी वर्ग कमाने में अब इतना कमाया, अभी इतना कमानाहै ऐसी बाट जोहते हैं ऐसे ही ज्ञानी जन जिस दृष्टि में आत्मदर्शन हो उसमें उत्साह बढ़ाते हैं और आगे बढ़ते हैं। आगे क्या बढ़ना, अंत: मग्न होनाहै। व्यवहार में आगे बढ़ने का तरीका है बाहर में आगे बढ़ना और अध्यात्म में आगे बढ़ने का तरीका है। अंत: मग्न होना। अपने से बाहर आगे बढ़ना या भीतर आगे बढ़ना? लौकिक बढ़ने में और अध्यात्म बढ़ने में एक विपरीत दिशा है। ज्ञानी पुरुष यहाँ चिंतन कर रहा है, अहो ! जब मैंने पर में आत्मबुद्धि की थी तब हमारी क्रिया भ्रम हुआ था, लेकिन―