वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1529
From जैनकोष
यो विशुद्ध : प्रसिद्धात्मा परं ज्योति: सनातन:।
सोऽहं तस्मात्प्रपश्यामि स्वस्मिन्नात्मानमच्युतम्।।1529।।
निर्मल है और प्रसिद्ध है आत्मस्वरूप जिसका, ऐसा परमज्योति सनातन जो सुनने में आता है ऐसा मैं आत्मा हूँ, इस कारण मैं अपने में ही अविनाशी परमात्मतत्त्व को देखता हूँ। क्या हूँ, जरा सम्मुख होने का और विमुख होने का इतना बड़ा भारी अंतर होता है कि एक ओर तो रहती है शांति और एक ओर रहती है अशांति। यह जीव अब तक बाह्य पदार्थों की ओर ही रहा। पंचेंद्रिय के विषयभूत स्पर्श रस गंध रूप शब्द इनकी ओर ही उपयोग रहा और इसी कारण इसके बड़ी वेग की तृष्णा उत्पन्न हुई और उस तृष्णा के वेग में यह अपने आपको सम्हाल न सका और बैचेन रहा। इस जीव ने अब तक भी अपने आपमें बसे हुए एकत्व विभक्त समयसार विशुद्ध चैतन्य ज्ञानानंदमात्र अपने आपको नहीं देखा, इसी के कारण यह अब तक बैचेन रहा। लेकिन यह समय बड़े चेतने का है। मनुष्य जन्म पाया, श्रावककुल पाया, इतना धार्मिक वातावरण पाया, बड़े-बड़े तत्त्व की बात जो ग्रंथों में भरी हुई हैं उनके सुनने, जानने और निर्णय करने की शक्ति पायी, इससे बढ़कर और समागम क्या हो सकता है? इस भव का जैन शासन कितना उत्कृष्ट है लेकिन इस उत्कृष्ट साधन को भी इन्हीं विषयों में खो दिया जाता। इससे बड़ी गलती और क्या हो सकती है? मैं विशुद्धपरम ज्योतिर्मय आत्मतत्त्व हूँ यों यत्न करें और अपने आपमें इस परमात्मस्वरूप को देखें।