वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 154
From जैनकोष
त्वत्स्वरूपमतिक्रम्य पृथक्पृथग्व्यवस्थिता:।
सर्वेऽपि सर्वथा मूढ भावास्त्रलोक्यवर्तिन:।।154।।
समस्त पदार्थों की आत्मस्वरूप से पृथक्ता―इस अत्यंत भावना के अंतिम प्रसंग में यह उपदेश दे रहे हैं आचार्यदेव कि हे व्यामोही पुरुष ! तीनों लोकवर्ती समस्त बाह्य पदार्थ तेरे स्वरूप से भिन्न और सर्वथा पृथक्-पृथक् ही ठहरे हुए हैं, तू उनसे अपना एकत्व मत मान। जो कुछ भी पदार्थ हैं ये इसही कारण हैं कि अब तक ये अपने स्वरूप में तो तन्मय रहे किंतु किसी भी पर के स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सके। इसी से इतने पदार्थों का अस्तित्व है। यहाँ तक सिद्ध कर रहे हैं कि न तो भूतकाल में कभी ऐसी गारन्टी हुई कि किसी पदार्थ ने किसी अन्य पदार्थ के स्वरूप को अपनाया है और न भावीकाल में ऐसी गारन्टी हो सकेगी कि कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ को अपना सकेगा। जब ऐसी स्थिति है तो ऐसा ही मान लें, इस भावना में कल्याण का पथ मिलेगा। आकिंचन्य भावना एक बहुत हितकारी भावना है। जीव को संतोष आकिंचन्य भावना में ही मिलता है। मेरे लिए मेरा कहीं कुछ नहीं हैं। मैं सबसे न्यारा केवल एक चैतन्यस्वरूप हूँ, ऐसी भावना से ही अपने आपकी समृद्धि के दर्शन होते हैं। जो कुछ चाहता है उसको कुछ मिलता नहीं है। जो अपने आकिंचन्य स्वरूप को देखता है उसे सर्वसमृद्धि प्राप्त हो जाती है।
कुछ की हठ में कोयला हाथ―एक ऐसा कथानक प्रसिद्ध है कि किसी सेठ ने नाई से हजामत बनवाई, सेठ था डरपोक। प्राय: सभी को नाई पर बड़ा विश्वास रहता है। वह उस्तरा गले में भी चलाता है, जरा सा ही तो उस्तरा दबाने का काम है कि उसका सफाया हो जाय, लेकिन प्राय: सभी को नाई पर बड़ा विश्वास रहता है, किंतु इस प्रसंग में वह सेठ डरा कि कहीं यह नाई हजामत बनाते हुए में गले में उस्तरा मार न दे। तो नाई से वह सेठ कहता है―देखो अच्छी तरह हजामत बनाना, हम तुम्हें कुछ देंगे। नाई ने समझा कि सेठजी धनी आदमी हैं, कोई अच्छी चीज खुश होकर निशानीरूप में देंगे। तो उस नाई ने अच्छी तरह हजामत बना दी। बाद में सेठ चार आने पैसे निकालकर देने लगा। नाई बोला―हम ये पैसा न लेंगे, हम तो कुछ लेंगे। फिर सेठ 8 आने देने लगा, रुपया देने लगा, अशर्फी देने लगा, पर वह कुछ की जिद में पड़ गया। हम तो कुछ लेंगे। सेठ परेशान होकर कहता है अच्छा उस आले में वह दूध का गिलास रक्खा है, ले आवो, दूध पी लें, फिर तुम्हें कुछ देंगे। नाई जल्दी पहुँचा, गिलास उठाया और गिलास में भरे हुए दूध में देखा कि कोई चीज पडी हुई है तो झट बोल उठा, अरे सेठजी इसमें कुछ पड़ा है। सेठ बोला―क्या कुछ पड़ा है? हाँ कुछ पड़ा है अच्छा तो तू कुछ ही तो मांगता था, वह कुछ तू ले ले, तो भाई उसे क्या मिला? कोयला। जो कुछ चाहता है उसे कुछ नहीं मिलता है। एक अपने आपको आकिंचन्यस्वरूप में जो निरखता है, मेरा कहीं कुछ नहीं मैं तो केवल चैतन्यस्वरूप हूँ तो उसे सर्व कुछ मिल जाता है।
मोही मनुष्यों की पशुपक्षियों से भी अधिक पराधीनता―देखो ये पशुपक्षी यहाँ फिर रहे हैं, कुछ खा रहे हैं, किसी ने ललकार दिया तो यहाँ से ओर जगह भाग गए। तो ये पशुपक्षी बड़े निर्लेप मालूम होते हैं। पर इस मनुष्य को कहीं जाना पड़े तो कितना-कितना सामान इसे ले जाना पड़ता है? मुश्किल से क्षेत्र छोड़ता है, कितनी कठिनाई होती हैं क्षेत्र छोड़ने में? यह तो केवल ऊपरी उदाहरण कह रहे हैं, वे पशुपक्षी तो मनुष्य से भी निम्न हैं, अज्ञानी हैं, लेकिन बाहरी बातें तो देखो―जरासी आहट हुई कि फुर्र करके उड़ गए, उन पशुपक्षियों में तो कोई बंधन की बात नहीं दिखती है, लेकिन हम आप मनुष्य ऐसे बंधनबद्ध से हो जाते हैं कि सब कुछ मुश्किल पड़ जाता है। जाना, रहना, उठना, बैठना―ये सब मुश्किल हो जाते हैं। जब चित्त में कषायभाव भरा है तो यह कहाँ जायेगा, क्या करेगा? ज्ञान ही एक ऐसी प्रकट औषधि है जिससे चिंता शोक आदिक समस्त रोग दूर हो सकते हैं। हे आत्मन् ! तू इन समस्त पदार्थों से अपने को भिन्न मान, उनमें अपना एकत्व मत समझ।