वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1558
From जैनकोष
यदक्षविषयं रूपं मद्रूपात्तद्विलक्षणम्।
आनंदनिर्भरं रूपमंतज्योतिर्मयं मम।।1558।।
जो कुछ इंद्रिय का विषयभूत रूप है, मूर्तिक पदार्थ हैं वे सब मेरे स्वरूप से विलक्षण हैं। स्पर्शन इंद्रिय के द्वारा स्पर्श विषय में आता है। सरना इंद्रिय के द्वारा रस विषय में आता है। देखिये केसी विलक्षणता है, प्राकृतिकता है कि जैसे कोई फल चखा, आम चखा, तो आम में स्पर्श भी है, रस आदिक भी है और वे सब आपमें हैं, एक तन्मय से हैं अर्थात् जिस जगह रूप है उसी जगह रस है, मगर रसना इंद्रिय रस को ग्रहण करती है, रूप, रस, गंध, स्पर्श ये चार चीजें अलग-अलग नहीं हैं कि आम किसी हिस्से में हो, रूप, रस आदि किसी हिस्से में हों। एक ही जगह चारों हैं, पर कैसा जुदा-जुदा निमित्त है कि रसना इंद्रिय से रस जाना जाता है, चक्षु इंद्रिय से रूप जाना जाता हे, घ्राण इंद्रिय से गंध जाना जाता है।स्पर्शन इंद्रिय से स्पर्श समझा जाता है।चारों गुण एक ही जगह हैं, सर्वत्र प्रदेशों में हैं, पर भिन्न-भिन्न इंद्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न विषय जाने जाते हैं। शब्दों को इतना इसलिए नहीं कहा कि जो कुछ होता है उसकी परिणति कोई न कोई प्रतिसमय रहती है, पर शब्दों में ऐसा नहीं पाया जाता कि शब्द बराबर प्रति समय रहे। जैसे रूप प्रतिसमय रहता है पदार्थ में, पुद्गल में इस प्रकार शब्द नहीं रहता। शब्द की उत्पत्ति तो पदार्थ के संघट्ठन, संयोग, वियोग आदि ऐसी परिस्थितियों के समय होती है। इसलिए शब्द पर्याय है और वह द्रव्य पर्याय है, किसी गुण की परिणति नहीं है। तो यह सब जो इंद्रियों के द्वारा विषय में आता हैयह मेरे स्वरूप से विलक्षण है। मेरा स्वरूप तो अनादि से निर्भर अंत: प्रकाशमय है। आत्मा में ज्ञान और आनंद गुण है। ज्ञान आनंद निकलकर फिर और कुछ आत्मा में देखो तो आत्मा कुछ वस्तु ही न रहेगा। और मात्र ज्ञानरूप से, आनंदरूप से आत्मा को निरखने लगें तो आत्मा का अस्तित्त्व मालूम पड़ेगा। जब तक ज्ञानभाव पर दृष्टि नहीं होती तब तक न आत्मा का परिचय है और न आत्मा की अनुभूति होती है। मैं ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, ज्ञान मेरा स्वरूप है। फिर ज्ञान बढ़ाने की कोशिश क्यों की जाती किसी पदार्थ पर दृष्टि रखकर? मुझे अमुक से ज्ञान मिलेगा यों पर से ज्ञान की भीख क्यों मांगी जा रही है? शायद यह कहो कि कुछ-कुछ प्राप्ति होती तो है ज्ञान की। जैसे कोई कथा की किताब पढ़ने बैठ जायें तो वह नया ज्ञान होता तो है। कोई गुरु कुछ समझाये तो उसके वचनों से कुछ ज्ञान होता तो है, इस कारण हम परपदार्थों से ज्ञान की भीख मांगते हैं? समाधान में एक यह निर्णय रख दीजिए कि ऐसी भीख मांगने में ऐसी जबरदस्ती करने में थोड़ा लाभ मिल भी जाय, तो भिखारियों को भी तो 10-5 पैसे मिल ही जाते हैं। मिल भी जाय ज्ञान तो बस जो मिला उतने तक ही है। लेकिन परपदार्थों पर दृष्टि न रखें, पर से ज्ञान की भीख न मांगे। और मुझे बाहर का ज्ञान चाहिए ही नहीं।क्या करना है जान करके? ऐसा निर्णय रखकर अपने आपके केंद्र में आकर स्व के ज्ञान का ही ज्ञान करें तो उस ज्ञानानुभूति के प्रताप से ज्ञानानवरणकर्म का विशिष्ट क्षयोपशम होता है कि एक साथ ऐसा ज्ञान प्रकट होता कि लोक के समस्त पदार्थ उसके ज्ञान में आ जाते हैं। आनंद की भी यही बात है। लोग मोहवश परपदार्थों से आनंद की प्राप्ति मानकर चेतन और अचेतन परपदार्थों से आनंद की भीख मांगता है। कदाचित् थोड़ा बहुत विकार रूप में आनंद का कुछ लाभ भी हो जाय, तो वह लाभ वही तक रहेगा, उससे कुछ तृप्ति न होगी, अतृप्ति चलेगी, और जब बाह्य पदार्थों से आनंद की धुन न रखे, मुझे न चाहिए मौज, क्या करना है, वह पराधीन है, नष्ट हो जायगा। यह मैं सुख की चाह क्यों करूँ? क्या रखा है सांसारिक सुखों में? मुझे ये सांसारिक सुख न चाहिए―ऐसा निर्णय बनाकर फिर आनंदधाम निज जीवास्तिकाय का ही आलंबन लें तो इसअभेद अखंड अद्वैत निज अंतस्तत्त्व के आनंद से ऐसा आनंद उमड़कर प्रकट होता है जो निर्दोष है, शाश्वत रहने वाला है, स्वाधीन है। यह आत्मा तो ज्ञान और आनंद से भरपूर है। कुछ चिंता शोक आदि में हो तो अपने को अनुभव करता है और इस ज्ञान और आनंद की वजह से सम्हल जाता है। ज्ञानी पुरुषअपने ज्ञानानंद स्वरूप कोनिरखकर अंतर डाल रहा है कि ये बाह्य के जितने मूर्तिक पदार्थ हैं ये मेरे स्वरूप से अत्यंत विलक्षण हैं। मैं तो आनंद निर्भर अंत: चैतन्य ज्योतिस्वरूप हूँ, और ये मेरे से अत्यंत भिन्न जड़ हैं, जीर्ण शीर्ण होने वाले हैं। उन पदार्थों में मेरी आकर्षण बुद्धि क्यों हो? ज्ञानी जीव अपने स्वरूप की भक्ति में चिंतन कर रहा है।