वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1589
From जैनकोष
आराध्यात्मानमेवात्मा परमात्मत्वमश्नुते।
यथा भवति वृक्ष: स्वं स्वेनोद्धृष्य हुताशन:।।1589।।
जैसे की बांसों का वन बांसों की परस्पर की रगड़ से जल उठता है इसी प्रकार यह आत्मा अपने आपके आत्मस्वरूप की उपासना से स्वयं प्रदीप्त हो जाता है, ज्ञानविकास उसका परिपूर्ण हो जाता है, परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है। कुछ तो थोड़ी बहुत ऐसी दृष्टि बनाकर अनुभव भी कर सकते कि जब यह उपयोग सबको छोडकर केवल अपने आत्मा के स्वरूप के जानने में लगता है तो कितना बोझ सिर पर से हट जाता है? और जब यह आत्मा के स्वरूप में नहीं लग पाता, वहाँ दृष्टि नहीं रहती तो परपदार्थों में दृष्टि रहती है, फिर कितने चिंता शोक आदिक बोझ अपने आप पर लद जाते हैं? तो उन बोझों से दूर होने का नाम मोक्ष है। संकटों से, क्लेशों से, जन्म मरण से रहित हो जाने का नाम मोक्ष है। यह बात कैसे बनेगी? पहिले अपने आपमें यह श्रद्धा हो कि में ऐसा हो सकता हूँ, मेरा यही स्वभाव है, कर्मों से, शरीरों से में दूर हो सकता हूँ, क्योंकि स्वरूप ही मेरा ऐसा है। इस आत्मस्वरूप में ये कर्म ये शरीर नहीं बसे हैं। मेरा स्वरूप तो मात्र ज्ञानरूप है। तो क्या ऐसा बन नहीं सकता यह? बन सकता है। न बन सकने की कोई बात नहीं। यदि यह श्रद्धा हो कि में आत्मा ऐसा हो सकता हूँ। अभी तो अपनी ही भूल में मैं इन शरीरों में बंधा रहा। बंधा भी क्या रहा, इन शरीरों से बंधा हुआ भी यह आत्मा शरीरों से बंधा नहीं है। जैसे गाय के गले को लोग रस्सी से बाँध देते हैं तो वहाँ भी गला नहीं बांधा, रस्सी का एक छोर दूसरे छोर से बाँध दिया गया है। गाय का गला तो पूर्ण मुक्त है। ऐसे ही अपने आपमें देखें―कर्मों में कर्म बंधे हैं, शरीर के परमाणु शरीर में बंधे हैं पर ऐसी हालत में भी गाय के गले की तरह यह आत्मा किसी चीज से बंधा नहीं है। जैसे हाथ में कोई रत्न लेकर मुट्ठी में बाँध लिया तो बंधन में तो मुट्ठी है हाथ में, रत्न तो उसके भीतर पूरा का पूरा मौजूद है, वह बंधा हुआ नहीं है। बराबर मुट्ठी से अलग है। इसी तरह शरीर और कर्म से यह आत्मा अवस्थित है, बहुत जकड़ा हुआ है, इस पर भी स्वरूप में दृष्टि लगावें तो आत्मा कुछ भी बंधा नहीं है, जकड़ा नहीं है। यह स्वयं अपनी स्वतंत्रता से जकड़ जाता है। जैसे किसी का किसी से प्रेम बंध बढ़ जाय तो यह खुद उससे बंधा-बंधा फिरता है, एक पिता जो बड़ा समर्थ है, जवान है, वह भी इस स्नेह के कारण एक छोटे से बालक से बंधा-बंधा फिरता है। तो उस बालक ने उस जवान पिता को नहीं बांधा, वह पिता ही खुद अपनी कल्पना से अपनी ही गलती से बंध गया। ऐसे ही कर्मों का बंधन क्या बंधन है, शरीर का बंधन क्या बंधन है? शरीर और कर्म ये दोनों इस आत्मा से बिल्कुल भिन्न चीज हैं―है तो यह हालत पर यह आत्मा अपनी ही गलती से इन शरीरों में बंधा-बंधा फिर रहा है। जैसे गाड़ियों में टिकटचेकर लोग आते हैं। उन्होंने अगर किसी का सामान ज्यादा देखा और टिकट वह कम का लिए हे तो झट अपनी टिकट को अपनी जेब में धर लेता है। तो वह व्यक्ति क्या करता है कि जहाँ-जहाँ भी टिकटचेकर जाता है उसके पीछे-पीछे वह भी लगा फिरता है। चूंकि उसका 20-25 रुपये का टिकट है तो उन रुपयों के स्नेह के कारण वह व्यक्ति उस टिकटचेकर से बंधा-बंधा फिरता है। ऐसे ही यह आत्मा भी परवस्तुवों के स्नेह के कारण इन कर्मों से शरीरों से बंधा-बंधा फिर रहा है। इन कर्मों के बंधन से तथा शरीरों के बंधन से छूटने का उपायहै ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति। जिन अरहंत और सिद्ध भगवान की हम आप उपासना करते हैं वे कर्मों से और शरीरों से मुक्त हैं। वे हम आपकी मुक्ति न करा देंगे। उनकी उपासना करके हम आप उनके गुणों को अपने में उतारकर मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। जैसे सिद्धप्रभु ने अपने आत्मस्वरूप की उपासना की वैसी ही उपासना हम आपको भी करनी होगी तब मुक्ति हो सकती है। अपने परिणाम खोटे बनाकर हम आप इस संसार में रुल रहे हैं। इस संसार के आवागमन से छुटकारा पाने का उपायहै एक आत्मज्ञान। हम आपको सोचना चाहिए कि अनादिकाल से इस संसा रमें रुलते चले आ रहे हैं, बड़ी मुश्किल से यह मनुष्यभव मिला है। इस दुर्लभ मनुष्यभव को पाकर अपना लक्ष्य आत्मकल्याण का होना चाहिए। इस आत्मस्वरूप की उपासना करें। इसी से हम आपको परमात्मपद प्राप्त हो सकता है।