वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 159
From जैनकोष
कृमिजालशताकीर्णे रोगप्रचयपीडिते।
जराजर्जरिते काये कीदृशी महतां रति:।।159।।
शरीर की कृमिजालाकीर्णता व रुग्णता―यह शरीर सैकड़ों कृमिजालों से भरा हुआ है। डाक्टर लोग भी बताते है इसके खून में कितनी कृमि हैं अथवा ये सब कृमिजाल ही तो हैं, कीड़ों का समूह ही वह सब खून है, और यह शरीर रोगों के समूह से पीडित है। इसमें कोई एक रोग है क्या? इसमें करोड़ों रोग होंगे। सैकड़ों रोग तो अपने आप पर बीत गए हैं और हजारों रोग ऐसे चल रहे हैं कि जिनका हमें पता नहीं पड़ता और शरीर में चल रहे हैं रोग। जब कभी कोई विरुद्ध प्रसंग उपस्थित हो जाय तो शरीर में कितनी बाधायें आ जाती हैं, जुखाम हो गया, खांसी हो गयी, सिरदर्द है, पेटदर्द है, बुखार हो गया, फुंसियाँ हो गयी, खाज हुई, दाद हुआ, यों सैकड़ों हजारों रोगों से पीडित यह शरीर है।
शरीर की रुग्णता का समर्थन―भैया ! एक भी शरीर ऐसा कहीं से लावो अथवा कोई भी मनुष्य ऐसा पेश करो जिसमें किसी भी प्रकार का रोग न हो। भले ही चूँकि और और रोगी पुरुष बहुत हैं, उनके मुकाबिले वे रोग वहाँ दिखते नहीं हैं सो निरोग कह दें, पर सही मायने में किसी भी पुरुष को निरोग नहीं कहा जा सकता। किसी न किसी प्रकार का रोग प्रत्येक मनुष्य में मिलेगा। भले ही कोई पहलवान बहुत तगड़ा है, उसकी जठराग्नि भी तेज है और किसी प्रकार की उसे पीड़ा नहीं होती, ऐसा स्वस्थ मजबूत शरीर भी हो तो भी वहाँ खूब निगरानी करके कोर्इ देखे तो अनेक रोग उस शरीर में भी मिलेंगे। यह शरीर रोगसमूह से पीड़ित है।
शरीर की जर्जरितता―यह शरीर बूढ़ापे से जर्जरित हो जाता है। बच्चों को ऐसा लगता होगा किसी अधबूढ़ें को निरखकर कि क्या है यह? दांतों में जब सींक डालता है वह अधबूढ़ा पुरुष भोजन का जो कुछ भर गया है उसे दूर करने के लिए तो बच्चे लोग कुछ मन में हँसते होंगे। क्या किया जा रहा है यह, क्योंकि उनके तो अभी सघन दाँत हैं, उन्हें सींक की जरूरत नहीं पड़ रही है अथवा जब बूढ़े लोग चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं तो ये अच्छे लोग कुछ हँसी मजाक भी करते होंगे, लेकिन कोई भी शरीर बूढ़ापे से दूर नहीं रह सकता यदि वह बराबर जीवित रहता है तो। जर से जर्जरित काया है यह। ऐसे असार शरीर में बड़े पुरुषों की कैसे रुचि हो सकती है?
शरीरसौंदर्य की अज्ञानकल्पितता―जिन्हें भेदविज्ञान नहीं जगा, जो शरीर को ही आत्मा समझते हैं और इसी कारण जो चारों संज्ञावों के ज्वर से पीड़ित है ऐसे मोहीपुरुष इस शरीर को बड़ा सुभग स्वरूप निरखा करते हैं। अरे एक आकार ही तो है, किसी की नाक जरा ऊपर उठ गयी, किसी की जरा लंबी खिंच गई, किसी के नाक के छिद्र कुछ छोटे हैं किसी के कुछ बड़े हैं, क्या है वहाँ, एक आकार ही तो बन रहा है। वहाँ सुंदरता का नाम क्या? जो अशुचि का पिंड है उस पिंड में फिर एक स्वरूप से परखना, सुंदरता का निर्णय करना, यह सब मोह में ही हुआ करता है। ज्ञानी पुरुष ऐसे अविवेक में नहीं फँसते।
शुचिविज्ञान से अशुचिभावना की सफलता―इस अशुचि भावना में शरीर की अशुचिता बतला रहे हैं, किंतु इस अशुचि भावना के साथ-साथ यह भी ज्ञात होना चाहिए कि क्या संसार में सभी पदार्थ अशुचि अशुचि ही हैं, कुछ पवित्र नहीं है क्या? यदि नहीं है कुछ पवित्र, तो अशुचि के गान से लाभ क्या? अशुचि से हटकर शुचि में पहुँचे, इसके लिए किसी को अशुचि बताया जाय तब वह ठीक है तो समझिये शुचि है और पवित्र है वह पदार्थ अपने आपमें अनादि अनंत सहजसिद्ध यह चैतन्यस्वरूप। इस शुचि का आश्रय लें और इन सर्वअशुचियों से निवृत्त हों।