वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1597
From जैनकोष
निखिलभुवनतत्त्वोद्भासनैकप्रदीपं,निरूपधिमधिरूढं निर्भरानंदकाष्ठाम्।
परममुनिमनीषोद्भेदपर्यंतभूतं,परिकलय विशुद्धं स्वात्मनात्मानमेव।।1597।।
हे आत्मन् ! तू अपने आपको अपने आत्मा में ही इस प्रकार विशुद्ध अनुभव कर। अपने आत्मा को जो आत्मा का स्वरूप है उस स्वरूप में अनुभव करें, जो बिगड़ गया रूप है, जो अनित्यस्वरूप है उस रूप अपने को मत समझिये। यद्यपि यह भी एक परिणति है। कोई मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, पेड़, पौधा है इस प्रकार विशुद्ध पर्यायें बन रही हैं तिस पर भी प्रत्येक द्रव्य जो निजस्वरूप होता है वह उसके कारण अपने आप होता है। उस स्वरूप में अपने को अनुभव करें।
इस जगत के बाहर कहीं भी कुछ भी सार और शरण तत्त्व नहीं है। बाहर में जो भी धनवैभव हैं, जो-जो समागम दिख रहे हैं उन सबमें कैसा उपयोग कर रहा है यह जीव? यह जीव लोगों में नामवरी चाहता है, लोगों से अनेक प्रकार की आशायें कर रहा है। धन वैभव का उपयोग तो विषय साधनों के लिए है। हमारे इंद्रिय के विषयों की खूब पूर्ति हो, इस शरीर को लक्ष्य में रखकर वह कह रहा हे―यह में आराम से रहूँ। साथ ही दुनिया के लोग मुझे समझ जायें कि मैं भी कुछ वैभववान व्यक्ति हूँ। धन वैभव का ऐसा उपयोग करना चाहते हैं परंतु जरा भली बुद्धि करके, आत्महित की दृष्टि करके निर्णय तो करिये। इस लोक में मेरा क्या भला होने का है? जिन लोगों की ऐसी उपासना कर रहे हैं कि भगवान न कुछ हैं। भगवान की ऐसी उपासना नहीं करता यह मनुष्य जिस लीनता के साथ दुनिया के लोगों की उपासना करता है। इसका उदाहरण एक यह लो। कोई व्यक्ति मंदिर में पूजन-भजन कर रहा हे तो जब तक कोई पास में नहीं है तब तक जिस चाहे तरह से वह पूजन करता है परंतु मंदिर में जब कोई दो चार व्यक्ति आ जाते हैं और यह पुजारी उन लोगों को देख लेता है तो उसके गान तान में फर्क पड़जाता है। तो यह गान तान किसे सुनाया जा रहा है? यह गान तान तो उन चार लोगों को सुना रहा है। लोगों से कुछ आशा बनाये है और कुछ नहीं तो ऐसी आशा बना ली है कि लोग मुझे कुछ समझें। मेरे बारे में लोग अच्छी ही बात रखें तो क्या यह उनका भीख मांगने की तरह नहीं है? अरे इन बातों से कुछ भी सार न मिलेगा। जैसे स्वप्न में कोई देखे कि मैं राजा हो गया, लोग मुझे नमस्कार कर रहे हैं, मेरी बड़ी मान्यता हे तो स्वप्न का काल व्यतीत होने के बाद फिर वह ज्यों का त्यों है। स्वप्न के समय की वह एक कल्पनाहै, इसी प्रकार मोह और राग के समय की यह कल्पना है कि मैं कुछ हूँ। अरे आत्मन् ! जब तू शरीर ही नहीं है, शरीर से निराला विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप तत्त्व है तो तू अपने इस चैतन्यस्वरूप की सम्हाल कर धनवैभव कुटुंब परिजन मित्रजन इनकी सम्हाल करने से तो तुझे कुछ भी लाभ न मिलेगा। इस जीवन को चाहे आराम में गुजारो, चाहे कष्ट में, इस शरीर का आराम कोई आराम नहीं। आराम तो मन का है। आराम तो ज्ञान का है। विशुद्ध भावना रहे, अपने आत्मस्वरूप का लक्ष्य रहे तो आराम वहाँ है। बल्कि शरीर को आराम से रखा जायतो रोज-रोज कुछ न कुछ इसे कष्ट आता है। मन का दु:ख छूटता है सम्यग्ज्ञान से। धन वैभव से भी कुछ पूरा नहीं पड़ने का है।जब इन सबसे दृष्टि हटाकर यह तो पुण्यानुसार जैसा आता है आने दो, उसके ज्ञाताद्रष्टा रहें। यह धन वैभव के पीछे हैरान होकर कुछ भी लाभ की बात न मिलेगी। इस धन वैभव से अपना बड़प्पन न समझें। जब अपने में सम्यक्त्व बना रहे तो तब समझिये कि हम मोक्षमार्ग में बढ़ रहे हैं। रत्नमय धर्मपालन बिना किसी भी बात में बड़प्पन नहीं है। अपने उस स्वरूप को निहारो।
देखिये जैन शासन की उपासना के लिए मूल मंत्र है णमोकार मंत्र। और णमोकार मंत्र के बाद तुरंत ही बोला जाता है विशुद्ध वातावरण बनाने के लिए एक दंडक, जिसे चत्तारि मंगल से शुरू करते हैं। चार चीजें मंगल हैं। मंगल शब्द का अर्थ है, मं अर्थात पाप, गल अर्थात् गला दे, जो पापों को गला दे उसे मंगल कहते हैं। दूसरा अर्थ मंग अर्थात् सुख, ल अर्थात् ला दे, जो सुख ला दे उसे मंगल कहते हैं। भला इस संसार में ऐसा कौन है जो पापों को गला दे अथवा सुख को उत्पन्न करा दे। निमित्त से तो एक अरहंत सिद्ध देव की उपासना ही अनेक भवों के कमाये हुए पापों को क्षणभर में ध्वस्त कर देती है, जिनेंद्र भक्ति अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप की भक्ति। समवशरण में चारों ओरसे बड़े-बड़े देव और इंद्र खिंचे आते हैं। आनंद में मस्त होकर बांसुरी, झांझ आदि अनेक प्रकार के बाजे बजाते हुए चले आते हैं। अरे वह आकर्षण किस बात का हे? वह आकर्षण है वीतरागता का। वह प्रभु रागद्वेषरहित निर्मल सर्वज्ञ हुए हैं। उसी सर्वज्ञता का यह प्रताप है कि वे सभी के सभी आकर्षित होकर चले आ रहे हैं। जैसे कभी किसी मनुष्य को देखकर करुणा उपजती है तो क्यों उपजती है? उसको देखकर अपने आपमें भी ऐसी गुप्त रूप से कुछ वासना बनती है कि ऐसा मैं भी तो हो सकता हूँ। उसकी तकलीफ से अपनी तकलीफ की तुलना करने लगते हैं यों दूसरे को देखकर दया आती है। तो एक तुलना की बात बतला हे हैं पर अरहंत प्रभु की भी एक विशुद्ध तुलना हे। वीतरागता का जो स्वरूप प्रकट है उसकी तुलना ज्ञानी पुरुष अपने में करता है। वह उत्कृष्ट है, वही मंगल है, वही सुख शांति को उत्पन्न करने वालाहै। उसी वीतरागता के कारण इंद्र और देव खिंचे चले आ रहे हैं। जो कुछ नहीं चाहता, किसके किसी में राग नहीं है, देखो उस पर ये तीनों लोक के इंद्र खिंचे चले आते हैं। तो वह विशुद्ध स्वरूप प्रकट हुआ है वही मंगल है। अरहंत सिद्ध एक समान है, केवल घातिया कर्मों का अंतर है। मगर स्वरूप में सर्वज्ञता, अनंत चतुष्टय उसी तरह के अरहंत में प्रकट है जैसा कि सिद्ध में। चूंकि अरहंत भगवान हमारे शासन के मूल आधार हैं। उनकी दिव्यध्वनि को गणधर देवों ने लिखा, अनेक आचार्यों ने बाद में उसका प्रतिपादन किया। तो अरहंत प्रभु ही हमारे इस जैन शासन के मूल आधार हैं।
तो देखो सबसे पहिले अरहंत देव को मंगल बताया है। अरहंत प्रभु के बाद सिद्ध प्रभु को मंगल कहा है। सिद्ध मायने जो पूर्ण आनंदरस से तृप्त हो गए हों, संसार के आवागमन से पूर्ण मुक्त हो गए हों। तीसरी बार कहते हैं कि साहू मंगलं। साधु मायने जो समता का पुंज हो। जगत के जीवों में किसी जीव के प्रीति यह बैरी है, ऐसी भावना न बने, यह मेरा मित्र है ऐसी भावना न बने, किंतु सब जीवों को एक स्वरूप में निरखता है ऐसा जो समता का पुंज है और अपने इस समता के पुंज आत्मतत्त्व के ध्यान में किसकी धुन बन गयी है ऐसा जो संत है वह साधु मंगल है। फिर चौथे बारे में कहते हैं कि केवलीपरणत्तोधम्मो मंगलं। भगवान के द्वारा कहा गया जो धर्म है वह मंगल है। उसे केवली भगवान ने बताया है। हे आत्मन् !यदि तू बाह्य संसार जगत को असार जानकर किसी भी क्षण उनको भुला दे, उनकी उपेक्षा कर दे, उनमें कुछ सार नहीं हे ऐसा जानकर उस ओर से मुख मोड़ ले, परमविश्राम में आ जाय तो तू अपने आपमें ऐसा आनंद पायगा, ऐसा विशुद्ध ज्ञान प्रकाश पायगा जिसके समान लोक में कुछ भी मंगल नहीं है।वह मंगल क्याहै। हमारा हममें ही बसा हुआ स्वरूप मंगल है। उसी को जान लें, उसी का अनुभव बनायें तो हमें वह मंगल मिलेगा। अपने विशुद्ध आत्मतत्त्व का अवलोकन करें, रागद्वेष रहित विशुद्ध परिणाम रखे यही लोक में उत्तम है। प्रथम तो दुनिया की चीजों को देखनाही न चाहिए कि यहाँ क्याहै क्या नहीं है? यहाँ कुछ भी चीज देखें तो उसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड ही मिलेगा। जो भी आकार बनावट सजावट होगी वह सब पौद्गलिक रूप है, बाहर में कहीं कुछ भी सार की बात नहीं है। कुछ सार नहीं है―इस निर्णय के लिए बाहर में कहाँक्या देखना, देख ही रहे हैं। यहाँ यदि कोई सार हे तो एक अरहंत प्रभु का शरण ही है। अरहंत प्रभु हमें कुछ दे न देंगे। उनके पास हमें देने के लिए कुछ है भी क्या? वह तो हमें कुछ भी नहीं देंगे। कोई पूछे कि अगर वह कुछ न देंगे तो फिर उनकी शरण में क्यों पहुँचते हो? तो मैं उनकी शरण में यों जाता हूँकि मुझे जो कुछ मिलना है वह मेरे से मिलता है। मैंने भ्रम से अनेक विकल्प मचा रखे हैं जिनके कारण मैं अशांत हो रहा हूँ। तो अरहंतस्वरूप की शरण में आकर, उन्हें निरखकर मैं अपने आप ही अपने में शांति प्राप्त कर लेता हूँ। इस कारण मैं अरहंतों की शरण को प्राप्त होता हूँ।
प्रभु के गुणों में जबखूब अनुराग जगे, अपना चित्त लगे तो सब कुछ मिल गया, अब उनसे क्या मांगना? लोग कहते हैं प्रभु को कि सुख देना दु:ख मेटना यही तुम्हारी बान। पर यह भी कहना ठीक नहीं। अरहंत प्रभु में चित्त लग गया तो समझो सब कुछ मिल ही गया। धनंजय कवि ने कहा है कि हे भगवन ! मैं आपकी स्तुति करके आपसे कुछ नहीं मांगता। कहीं आप ऐसा न सोचने समझने लगना कि यह भक्त हमसे कुछ मांगने के लिए हमारी शरण में आया है, में जानता हूँ कि आप उपेक्षक हैं। आपका किसी के प्रति राग अथवा द्वेष है नहीं। आप तो अपने अनंत आनंदस्वरूप में मग्न हो रहे हो। मैं जानता हूँ कि आप उपेक्षक हैं। तुमको किसी से ममता नहीं रही।....तो भाई ! स्तुति क्यों करते हो? ....कहते हैं कि स्तुति हम इसलिए कर रहे हैं कि उस स्थिति में हमें स्वयं भी अपने में शांति मिलती है। क्योंकि आपके गुणानुराग से हमें अपने गुणों का स्पर्श हो जाता है। और फिर एक बात और सुनो ! यदि कोई पुरुष छाया वाले पेड़ के नीचे बैठा हुआ उस पेड़ से प्रार्थना करे कि ऐ पेड़ तू मुझे छाया दे तो यह कितनी मूढ़ता भरी बात होगी? यदि कोई उसके मुख से ऐसा सुन ले तो वह तो उसे पागल कहेगा। तो हे भगवन ! आपकी छत्रछाया में बैठकर मुझे आपसे कुछ न चाहिए। आपके गुणों में हमारा उपयोग रम रहा है, बस अब तो हमें सब कुछ मिला ही हुआ है। हे प्रभो ! मैं किसकी शरण जाऊँ? जहाँ बसा, जिसमें रहा, चाहे कितना ही प्रेम का वातावरण हो, मगर वहाँ से ठोकर ही मिली, अशांति ही मिली, विकल्प ही चले। मैं किसकी शरण जाऊँ? ढूँढ़ता-ढूँढ़ता हे प्रभो ! मैं आपकी शरण में आया तो मुझे आपसे परम शरण मिला। हे सिद्ध भगवंत ! मैं तुम्हारी शरण को प्राप्त होता हूँ, हे सिद्ध परमेष्ठी, हे समता के उपासक, हे ज्ञानमात्र तत्त्व के लखनहारे, हे संसार से विरक्त हुए साधु पुरुष ! मैं तुम्हारी शरण को प्राप्त होता हूँ। ये तीन शरण तो व्यावहारिक शरण है। आखिरी निचोड़ की बात अंत में कहते हैं कि में उस धर्म की शरण को प्राप्त होता हूँ जिस धर्म को केवली भगवान ने बताया, वह धर्म अपने आपमें ही है।
भाई अपने आप पर दया करो, अपनी रक्षा करो, अपनी सुध लो, अपने में शांति उत्पन्न करो। अपने को संसार के दु:खों से छुटा लो। यह एक बड़ा मौका मिलाहै। मनुष्य हुए हैं, श्रावक कुल में आये हैं, जैन शासन मिला है, मन भी उत्तम मिलाहै। दूसरे के हृदय की बात समझ सकते हैं, अपने हृदय की बात दूसरों को बता सकते हैं। इतना दुर्लभ समागम प्राप्त कर इसका पूर्ण सदुपयोग करें। यह सदुपयोग हे अपने आपमें अपने धर्म की दृष्टि कर लेना। हे आत्मन् ! तू अपने आपको ऐसा अनुभव कर कि यह आत्मा समस्त लोक के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाला एक अद्वितीय तत्त्व है। यह आत्मा निरंतर जानता रहता है, जानन के अतिरिक्त इसमें और कुछ नहीं है। ज्ञानी पुरुष तो जानन से आगे कुछ नहीं चाहता। जानना भी न चाहे, पर जानन स्वरूप है सो जानता रहता है। यह आत्मा कितना जानने की शक्ति वाला है? अरे कितने का सवाल क्या? इसके जानने का स्वभाव है सो सब कुछ जानने में आ जाता है। समस्त द्रव्य अलग-अलग हैं, सबके यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाला एक अद्वितीय प्रतीक है। अपने आपको इस प्रकार अनुभव करें कि यह आत्मतत्त्व अलौकिक अनुपम सातिशय विशुद्ध सहज आनंद की काष्ठा को प्राप्त होवे अर्थात् यह आनंदस्वरूप है।अपने आत्मा को इस रूप में निरखनाहै कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ। मनुष्य चाहता क्याहै? मेरा ज्ञान बढ़े और मेरा आनंद बढ़े। जो कुछ भी चाहता है वह इन दोनों की पूर्ति के लिए। बड़े-बड़े ऋषिसंत जन बता गए हैं कि हे आत्मन् ! तू अपने आत्मा का ऐसा अनुभव कर कि मेरा जो एक विशुद्ध स्वरूप है, जो ज्ञानानंदरस निर्भर आत्मतत्त्व है वही कल्याणरूपहै। अन्य उपयोग में अन्य बुद्धि में, अन्य विकल्पों में पड़ने से कल्याण नहीं है।