वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1608
From जैनकोष
श्रीमत्सर्वज्ञदेवोक्तं श्रुतुज्ञानं च र्निमलम्।
शब्दार्थनिचितं चित्रमत्र चिंत्यमविप्लुतम्।।1608।।
सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष आज्ञाविचय धर्मध्यान में ऐसा चिंतन करता हे कि सर्वज्ञदेव के द्वारा कहा गया निर्मल और शब्द अर्थ से परिपूर्ण नाना प्रकार का विधिश्रुत है। श्रुतज्ञान अंग पूर्ण रूप में जो आया है वह मूल में तो भगवान की दिव्यध्वनि से निकला है, उस दिव्यध्वनि को सुनकर गणधर देवों ने उसका प्रतिपादन किया, फिर मुनिजनों ने, आचार्यजनों ने उसे सुनकर उसका प्रतिपादन किया। तो यह श्रुतज्ञान सर्वकल्याणभूत है, ऐसा ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है। अब श्रुतज्ञान क्याहै? उसका वर्णन करते हैं।