वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1627
From जैनकोष
अनादिभ्रमसंभूतं निर्वार्यते मया।
मिथ्यात्वाविरतिप्रायं कर्मबंधनिबंधनम्।।1627।।
अपायविचय धर्मध्यान में मिथ्यात्व आदिक वैराग्य के, अपाय के उपाय का चिंतवन करना चाहिए। अनादिकाल से लगी चली आयी हुई अविद्या है, उस अविद्या में अविद्या के कारण मिथ्यात्व, अविरत, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये सब पाप बस रहे हैं और उनके कारण कर्मबंध हो रहा है तो ये सब मेरे से किस प्रकार दूर हों उसका चिंतन होना चाहिए। देखिये सबका कोई न कोई लक्ष्य रहता है। हर एक जीव अपना कोई न कोई लक्ष्य बनाये हुए है। पर प्राय: लोग यह लक्ष्य बनाये हैं कि मेरी जगत में महत्ता बढ़े। इसमें सब आ गया। धनी क्यों बनना चाहते? इसी कारण कि मेरा महत्त्व बढ़े। जो-जो कुछ भी यह मनुष्य करना चाह रहा है सांसारिक बातें, उन सबका मूल में उनका लक्ष्य बना है कि मेरा बड़प्पन बने। यह है लौकिक बड़प्पन। इसी लक्ष्य के कारण इसको अभी तक शांति नहीं मिल सकी। क्यों नहीं शांति मिल सकी कि इसने तो जनता से बहुत-बहुत भीख मांग रखा है। मेरा लोक में बड़प्पन बने, इसके मायने यह हैं कि इन अज्ञानी कर्मकलंकित जीवों से यह चाह रहती है कि ये मुझे कुछ अच्छा कह दें तो यह भीख मांगना ही तो है। इस भीख के मांगने से न कोई आजीविका का लाभ है और न धमकी, न परलोक के सुधार का लाभ है। इसने बहुत भीख मांग रखा है, इस कारण इसको शांति प्राप्त हो कहाँसे? ? अरे जिन लोगों से अच्छा कहलवाने की भीख मांगी जा रही है वे हैं कौन? वे लोग तो इस मुझको जानते भी नहीं हैं। यहाँ कुछ भी तो तत्त्व नहीं रखा है। और फिर इन मायामयी इंद्रजालवत् असार जीवों से कुछ चाह करना, ये कोई मेरे प्रभु हैं क्या? यह जितना जीवलोक है ये कोई मेरे प्रभु नहीं हैं, मालिक नहीं है ये, मेरा कुछ भी सुधार नहीं कर सकते।इनसे क्या आशा करें? इनसे क्या चाह करें? लोक में इन लौकिक जनों में बड़प्पन की चाह करना यह अपने आपके परमात्मा पर महान अन्याय लादना है, अपने आपको बरबाद करनाहै, अपने आपका घात करनाहै। यह बात सम्यग्ज्ञान के प्रताप से हो सकती है कि मैं कुछ लोगों से न चाहूँ। केवल आवश्यकता है तो यही कि धर्मपालन होता रहे। तो रक्षा करने वाला धर्म ही है। परभव में धर्म ही सहायक है और कुछ नहीं। कभी छोटी-छोटी विपत्तियाँभी आयें तो उसमें विषाद न मानना चाहिए। क्योंकि यह तो संसार है। यहाँ तो ऐसे अनर्थ ऐसी बातें होती ही रहती हैं, उसका संकट न मानें और कुछ संपदा न आये, इष्टजनों का संयोग हो, संतान आदिक ठीक हों लोग आज्ञाकारी हों तो उसमें मौज न मानें, ये सब मिटेंगे, और जब तक है इनका संयोग तब तक भी कष्ट के लिए है, शांति के लिए नहीं है। कैसे बन सके शांति? कोई परपदार्थ शांति का निमित्त भी नहीं बन सकता, क्योंकि जब अपना उपयोग पर की ओर मोड़ा तो परदृष्टि में आकुलता ही बनती है। ऐसा यहाँ का प्राकृतिक नियम है। जब हम अपने आपके आधार को छोड दें, अपने मालिक को छोड दें और बाहर में कुछ करना पड़े तो उस परिस्थिति में चैन हो ही नहीं सकती। आकुलता ही मची रहेगी, पर की ओर आकर्षण होता है, पर का हम आलंबन लेते हैं। दूसरों को हम राज़ी रखना चाहें, दूसरों से हम अपने बारे में कुछ चाहते हैं―ये सारे विकल्प हमारे बैरी हैं अन्यथा हमारा तो ज्ञानस्वरूप है, आनंदस्वरूप है, कमी कुछ न रहेगी। आत्मासो परमात्मा, इसका मतलब क्याहै कि जो परमात्मा का स्वरूप है, प्रकट हुआ है वैसा स्वरूप हमारे अंदर है। इसमें वैसी ही शक्ति है। सभी का स्वरूप एक सा है। बाद के विकल्पों से, उपाधि से भेद पड़गए हैं पर रचना सबके स्वरूप की एक प्रकार की है। सभी चिदानंदस्वरूप हैं। हम आप सबका एक चैतन्यमात्र है। जिन बातों से अंतर पड़ा है हम उन बातों को दूर करने का प्रयत्न करें। तो यह अनादिकाल की अविद्या लगी है उससे ये मिथ्यात्व पाप आदिक परिणाम पैदा होते हैं जो कि हमारी बरबादी के लिए हैं। ये सब परिणाम मुझसे दूर हों और मैं अपने सहजस्वरूप का अवलोकन करता रहूँ ऐसा यह अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष चिंतन करता है।