वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1632
From जैनकोष
कोऽहं ममास्रव: कस्मात्कथं बंध: क्व निर्जरा।
का मुक्ति: किं विमुक्तस्य स्वरूपं च निगद्यते।।1632।।
यह ज्ञानी पुरुष विचार कर रहा है कि मैं कौन हूँ? कोई आदमी बाहर से अपने घर का दरवाजा खटखटाये, घर के लोग पूछे कौन? तो वह उत्तर देता है―कोई नहीं। उसका अर्थ यह है कि जिसका यह घर हे, जिसका जो मालिक है, जो इसका विशुद्ध अधिकारी है, उसके सिवाय दूसरा कोई नहीं। इसी प्रकार मैं कौन हूँ? इसका यदि सही उत्तर सोचा जाय तो यह कहने को मिलेगा कि जो कभी मिट न सके, जो मेरा अभीष्ट सहजस्वरूप है जिसके बिना मेरा अस्तित्त्व नहीं ऐसा वह मैं कौन हूँ? तो सही समाधान भी लेते जाइये। मैं सहज ज्ञान, दर्शनस्वरूप चैतन्यतत्त्व हूँ, इसका कुछ नाम ही नहीं। मेरा जो स्वरूप है उसका नाम क्या? नाम भी कुछ रख लें तो उसका महत्त्व क्या? क्योंकि जो भी स्वरूप का नाम रखूँगा वह नाम सभी जीवों का पड़ेगा। परमार्थ से जैसा मेरा स्वरूप है, जो मैं आत्मा हूँउसका यदि नाम धरें तो सबका वही नाम है। जीव नाम रखें तो जीव सभी का नाम हे, आत्मा नाम रखें तो आत्मा सभी का नाम है। यदि एक ही नाम सबका हो जाय मानो सभी का नाम घसीटामल हो जाय तो फिर कौन यह चाहेगा कि इस लोक में मैं अपना नाम बढाऊँ? इस नाम के ही कारण लोग धनिक बनते, लोगों में अपने को अच्छा कहलवाने की चाह करते हैं। इस मुझ आत्मा का तो कुछ नाम ही नहीं है ऐसा नाममात्र इतना शुद्ध तत्त्व मैं हूँ। मेरे में कर्मों का आश्रव क्यों होता है? अब ऐसाचिंतन ज्ञानी पुरुष कर रहा है। कर्मों के आस्रव के जो उपायहैं, जो कि ग्रंथों में लिखे हैं, कुछ अपने पूर्व अनुभव से भी सोचें―क्यों कर्मों का आस्रव होता है? तो उसका सीधा समाधान है मोह रागद्वेष रूप जो परिणमा होते हैं उनसे कर्मों का आस्रव होता है। संसार के किसी भी प्राणी से, किसी भी परपदार्थ से मेरा कोई नाता नहीं। अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं सब, मेरे प्रदेशों से अत्यंत न्यारे हैं, मैं अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में हूँ वे अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में हैं। हम अपने ही प्रदेशों में अवस्थित हैं और वे सब अपने ही प्रदेशों में अवस्थित हैं। जिस क्षेत्र में मैं हूँ उस ही क्षेत्र में अत्यंत अन्य द्रव्य बस रहे हैं। यह मैं आत्मा अपने आपमें अपना अनुभव करता हूँ। मेरा मेरे सिवाय किसी अन्य से कोई संबंध नहीं है। सभी पदार्थ मुझसे अत्यंत पृथक् द्रव्य हैं। लेकिन उनमें से कोई छटनी कर डालना कि यह वैभव मेरा है, यह परिवार मेरा हैं, ये लोग मेरे हैं, इस प्रकार की छटनी कर डालना यह महाव्यामोह है, अज्ञान है। इसी व्यामोह के कारण कर्मों का आस्रव होता है। यद्यपि कर्मों का आस्रव साधारण रागद्वेष से भी होता है। उस आस्रव की कथनी हम कह रहे हैं और ये आस्रव भविष्य में हमें ही बरबाद करते हैं, ऐसा चिंतन ज्ञानी पुरुष कर रहा है। कर्मों के आस्रव का कारण बताया है स्नेहभाव, पर का आकर्षण। जहाँस्नेह हुआ कि वही कर्मों का बंध हो गया। जैसे कोई पहलवान शरीर में तेल लगाकर हाथ में तलवार लेकर धूल भरे मैदान में कदली के वृक्षों को काटने का व्यायाम करता है तो उसका सारा शरीर धुल से भर जाता है। वहाँ पूछा जाय कि भाई उसका शरीर धूल से क्यों भरा तो उसका क्या उत्तर होगा? उत्तर यह होगा कि उसने अपने शरीर में तेल लगाया इससे उसका शरीर धूल से भर गया। कोई कहे कि तलवार लेकर उसने कदली के वृक्षों को काटने का व्यापार किया इसलिए उसका शरीर धूल से भर गया, कोई कुछ कहेगा कोई कुछ। पर उसका अंतिम सही उत्तर यह है कि उसके शरीर में स्नेह अर्थात् तेल लगा था इसलिए धूल से उसका शरीर भर गया। इसी प्रकार से इस संसारी जीव के कर्मों का बंधन स्नेह भाव के कारण होता है। परपदार्थों में स्नेह बुद्धि है इसलिए कर्मों का बंध होता है। ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा हे कि कैसे आस्रव होता, कैसे बंध होता जिससे उन उपायों को किया जाय और ये रागादिक शत्रु दूर हो जायें। और भी चिंतन करता हे कि इन कर्मों की निर्जरा किस कारण से होती है? स्नेह न रहे तो ये कर्म झड़ जायें। जैसे स्नेह न रहे, तेल उस पहलवान के शरीर में न लगा रहे तो उसके शरीर में धूल का बंध न हो, ऐसे ही मेरे में यह स्नेहभाव न रहे तो कर्मों का बंध न हो। स्नेह न रहे, केवल ज्ञानमात्र यह जाय यह उपयोग तो ये कर्म झड़ जायेंगे। यही निर्जरा का उपाय है। और भी वह ज्ञानी पुरुष चिंतन करता हे कि मोक्ष क्या वस्तु है? तो मोक्ष समस्त अनात्मतत्त्वों से छुटकारा पाने का नाम है। केवल मैं रह जाऊँ, कैवल्य प्राप्त हो जाय, अपने आपकी श्रद्धा बने कि मैं केवल यह हूँऔर उस ही कैवल्य को उपयोग में ले तो कैवल्य प्रकट हो सकता है। उसी के मायने मुक्ति हैं। और यह चिंतन भी कर रहा है कि मुक्त होने पर आत्मा का क्या स्वरूप रह जाता है? विशुद्ध ज्ञान, विशुद्ध दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति ये प्रकट हो जाते हैं और यों एक शब्द में कहो कि कैवल्य प्रकट हो जाता है। आत्मा के अस्तित्त्व के कारण आत्मा का स्वरूप परिपूर्ण प्रकट हो जाता है। जो था वह प्रकट हो जाता है। इस ही विधि से जानने वाला इस विशाल परमात्मतत्त्व का यह दर्शन करता है, प्रतिभास करता है, अनंत आनंद प्रकट होता है जहाँरंचमात्र भी आकुलता नहीं रहती और इन समस्त गुणों के विकास को धारण करने की शक्ति प्रकट हो जाती है जिससे फिर कभी भी इन गुणों का विकास दूर न हो। यों अनंत चतुष्टय संपन्न यह आत्मा रह जाता है मुक्त होने पर। ऐसा अपने स्वरूप का चिंतन कर रहा है यह अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष। जिससे मुक्ति के उपाय में लगे और रागादिक के अपाय का विचय बने ऐसा उत्कृष्ट ध्यान यह ज्ञानी पुरुष कर रहा है।