वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1673
From जैनकोष
उपर्युपरि संक्रांतै: सर्वतोऽपि निरंतरै:।
त्रिभिर्वायुभिराकीर्णो महावेगैर्महाबलै:।।1673।।
लोक की त्रिविधवायुपरिवेष्टितता―समस्त लोक के चारों तरफ तीन प्रकार की वायु है, वह लोक से बाहर नहीं है वायु। वायु तक लोक है। जैसे पुरुषाकार लोक माना तो उस लोक के चारों तरफ पहिला तो हैं घनवातवलय, बाद में है धनोदधि वातवलय और सबसे अंत में हैं तनुवातवलय। घन वातवलय के मायने बहुत मोटी धातु और धनोदधि वातवलय के मायने मोटी वायु है। कुछ जलकण हैं और सबसे अंत में तनुवातवलय है, वह सबसे अंत की वायु है। ये चार तरह के अलोकाकाश हैं, वे बहुत बलवान हैं तभी तो देखो उस वायु के आधार पर यह सारा लोक सधा हुआ है। बहुत से लोग कल्पनाएं करते हैं कि इस लोक को कछुवे ने अपनी पीठ पर रख रखा है, कोई कहते हैं कि शेष नाग के फन पर यह लोक है, कोई कहते हैं कि यह दुनिया अपनी छोटी कीली पर है, वह कीली पर सधी हुई है, इस प्रकार अनेक कल्पनाएं करते हैं। जैन शासन में बताया है कि तीन लोक के विभाग में यह सारा लोक है और लोक के चारों ओर तीन प्रकार की वायु है, उस वायु पर यह लोक सधा हुआ है। इस ही वायु को अगर शेष नाग कहा जाय तो ठीक है क्योंकि शेष नाग का भी अर्थ है वायु। नाग में 3 शब्द हैं―न अ ग। गच्छति इति ग:। जो जाये उसे ग कहते हैं और अगच्छति इति अंग। जो न चले सो अग है, अग मायने पर्वत। जो चलता नहीं। और न गच्छति इति नाग:, जो स्थिर न रहे उसे नाग कहते हैं। स्थिर नहीं रहती वायु, तो वायु का नाग नाम है, और शेषनाग मायने शेष की जो वायु है, जो शेष बची हुई अंत की वायु है उसे शेषनाग कहते हैं। अर्थात् यह ही वातवलय है। इन वातवलयों के आधार पर यह सब लोक टिका हुआ है।