वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1681
From जैनकोष
उदीर्णानलदीप्तासु निसर्गोष्णासु भूमिषु।
मेरुमात्रोऽप्यय:पिंड: क्षिप्त: सद्यो विलियते।।1681।।
नरकभूमियों में तीव्र उष्णता का निर्देश―यहाँ नरकों में गरमी और ठंड की बात दिखाई गई है कि नरकों में अग्नि है अथवा उष्ण है, न भूमियों में तो ऐसी उष्णता है कि जिसमें मेरु समान भी लोहा डाल दिया जाये तो तत्काल गल जाता है। उष्णता में लोहा गल ही जाता है तो इसमें कोई संदेह की बात नहीं और उष्णता के जब दिन आते हैं तो ये घर भी गर्म हो जाते हैं। भीतर की भींत छुवो तो गर्म, शाम के समय छत पर भी जाकर बैठे हैं, सोते हैं तो वहाँ भी गरमी। तो जब यहाँ की गरमी से हम लोग विह्वल हो जाते हैं, चैन नहीं पाते हैं तो उससे भी कई गुना गरमी उन नरकों में है, वहाँ लोहे का गोला हो तो वह भी गल जाता है। ऐसे उष्ण स्थान में जो नारकी जीव निवास करते हैं उनके दु:ख का कौन वर्णन कर सकता है? यहाँ तो हम आप मामूली से दु:ख भी सहन नहीं कर पाते। एक रात्रि को जल का त्याग करना भी मुश्किल हो जाता है। यद्यपि दिन-दिन में जितने चाहे बार पी सकते, फिर भी सिर्फ रात्रिभर को भी जल का त्याग नहीं कर सकते। संसार में तो न जाने कितने-कितने दु:ख सहने पड़ते हैं? परवश होकर तो दु:ख बहुत सहा जाता पर स्ववश होकर कुछ भी नहीं सह सकते। तो ऐसी उष्ण पोल में नारकियों को अपने पाप के उदय में घोर दु:ख सहना पड़ता है।