वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1707-1708
From जैनकोष
यन्मया वंचितो लोको वराको मूढमानस:।
उपायैर्बहुभि: पापै: स्वाक्षसंतर्पणार्थिना।।1707।।
कृत: पराभवो येषां धनभूस्त्रीकृते मया।
घातश्च तेऽत्र संप्राप्ता: कर्तुं तस्याद्य निष्क्रियाम्।।1708।।
प्रवंचना से हुए पापों का संताप―पूर्वजन्म में मैंने इन बेचारे गरीब लोगों को ठगा, अनेक अन्यायरूप उपाय किया, अपनी इंद्रियों को पोषने लगा, अपनी स्वार्थ वृत्ति के कारण मैंने अनेक गरीब लोगों को सताया, पर का धन, पर की भूमि, परस्त्री लेने के लिए मैंने जिन जिनका अपमान किया, जिन जिनका घात किया, जिन जिनको सताया वे ही लोग इस नरकभूमि में आये हैं और मेरे मारने के लिए उद्यमी हुए हैं। कोई खोटा परिणाम करे तो उसका फल भोगना पड़ता है। वर्तमान में कुछ पुण्य के कारण इस समय पाप करते हुए भी फल नहीं सामने आ रहा तो मत आवो, लेकिन आज जो पाप का परिणाम किया जा रहा है यह सब फल देगा। लोग थोड़े से धन की लिप्सा रखकर अन्याय और पाप की बात को एकदम गौण कर देते हैं, अपने परिणाम मलिन रखते हैं और धन लाभ की ओर दृष्टि रखते हैं, मगर विश्वास नहीं है उन्हें, असत्य बोलकर, मायाचार करके बेईमानी करके किसी प्रकार कपट करके भी जो धन मिला है वह धन बेईमानी कपट करने से नहीं मिला है किंतु वह तो मिलना था सो मिला है, बल्कि बहुत कुछ संभव है कि इससे अधिक मिलना था, पर वर्तमान में कपट आदिक भावों के कारण तुरंत ही कम हो जाता हे। जिसे आत्महित चाहिए उसका जीवन फकीराना हो जाता है। वह अपने परिणामों की सावधानी रखता है। अपने परिणामों को मलिन करने का भाव ज्ञानी पुरुष नहीं रखता। क्या है, धन मिल गया तो उससे इस अमूर्त निर्लेप आत्मा को लाभ क्या मिल जायगा? कुछ भी तो इस आत्मा का सुधार नहीं होने का है। धन कमाकर तो लोग इसी बात में लाभ मानते कि इन लोगों में हमारी भी कुछ गिनती हो जायगी। सो लोग भी असार हैं, मायामय हैं, उन लोगों से कौनसा लाभ मिलेगा, लेकिन जहां इस ही ख्याल के बहुत से लोग हैं वहाँ कोई ज्ञानी विरक्त एक हो तो उसकी क्या चले? बल्कि जैसे आजकल कोई सच्चाई से चले तो उसे सब बेवकूफ कहते हैं, क्योंकि प्राय: सभी लोग सच्चाई से गिरे हुए हैं, इसी तरह कोई निर्मोह रहकर कुछ धर्म की विशेष चर्चायें करके अपने जीवन को संयमपूर्वक बिताये और उसमें भी गरीबी रहे तो भी उस ज्ञानी पुरुष को इसकी कुछ परवाह नहीं रहती। मेरे लिए तो मैं ही रक्षक हूं। दूसरा मेरा कोई साथी तो नहीं। जो हित की बात हो उसे करना है मुझे। ऐसी ज्ञानी की धुनि रहती है। दूसरे की भूमि हर लेना, छल प्रपंच करके कुछ अधिक भूमि बना लेना यह कोई भली बात है क्या? अरे यह भूमि साथ जायगी क्या? यह तो थोड़े समय का गुजारा है, जिस समय की कुछ गिनती भी नहीं। उस अनंत काल के सामने सागरों पर्यंत काल की तो कुछ गिनती नहीं, फिर यह 10-20-50 वर्ष की तो कुछ गिनती ही क्या? इतने से समय के लिए कुछ अपने को खुश करने की बात बनाये तो उसमें लाभ क्या हुआ? जीवन उसका धन्य है जो वीतराग सर्वज्ञदेव के लगाव में रहते हैं, जो उसही ओर अपना चित्त लगाकर खुश रहा करते हैं और व्यवस्था की बात तो छोटे से छोटे लोग भी व्यवस्था बना लेते हैं और बड़े से बड़े धनिक भी व्यवस्था बना लेते हैं। एक लक्ष्य होने की बात है फिर सब आ सकता हे। मुझे आत्महित करना है, मुझे आत्मस्वरूप के दर्शन में यत्न रखना है, यही रमना है ऐसा लक्ष्य बन जाय तो मेरे लिए ये व्रत नियम संयम और गरीबी की भी व्यवस्था ये सारी चीजें उसे आसान हैं, पर जिन्होंने अपना लक्ष्य नहीं बनाया, स्वरूप दर्शन नहीं किया उनका चित्त तो बाहर-बाहर ही रमेगा, उन्हें शांति कहां से होगी?
परस्त्री सेवन से हुए पापों का नरक में संताप―परस्त्री का विकल्प कितना गंदा विकल्प है, परस्त्री का स्नेह करके पुरुष रहेगा कहां, क्या स्थिति बनेगी? निरंतर उसके आकुलता बेचैनी रहेगी, भय रहेगा और चित्त ठिकाने ही न रहेगा। कितना कर्मबंध होगा? उस कर्म के उदय में नरक में ही जन्म लेना होता है। यह नारकी जीव विचार कर रहा है कि परस्त्री परधन के पीछे मैंने लोगों पर अन्याय किया, अपमान किया, उनका तिरस्कार किया, घात किया। जिन जिनका हमने घात किया, जिन जिनको हमने सताया वे जीव भी यहाँ नारकी बने हैं और मेरे घात पर उतारू हैं।