वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1710
From जैनकोष
मानुष्येऽपि स्वतंत्रेण यत्कृतं नात्मनो हितम्।
तदद्य किं करिष्यामि दैवपौरुषवर्जित:।।1710।।
मनुष्यभव को प्रसाद में गंवाकर नरक में आने की परवशता का चिंतन―वह नारकी जीव विचार करता है कि जब तैं मनुष्यभव में स्वाधीन था तब ही मैंने आत्महित का साधन नहीं किया तो अब इस नरक भव में जहां भाग्य भी साथ नहीं दे रहा और पुरुषार्थ भी नहीं चल रहा तो इस नरक भव में मैं क्या कर सकता हूं, यहाँ मेरा हित साधन नहीं हो सकता। जहां हितसाधन हो सकता था उस भव को तो मैंने व्यसनों में पापों में गंवा दिया, अब यहाँ नारकी का भव मिला है तो यहाँ भाग्य तो साथ यों नहीं दे रहा कि कोई साधन ही नहीं है, सारे असाता के फल भोगने के स्थान हैं। कोई सत्संगति ही नहीं है। सभी जगह क्रूर जीवों का वास है। यह एक ऐसा भव है कि जहां कोई पुरुषार्थ नहीं है, व्रत नियम वगैरह भी नहीं हो सकते हैं। तो जिस भव में मैं हित कर सकता हूं उस मनुष्यभव को तो मैंने बिगाड़ दिया, असंयम में खो दिया, अब उसके फल में आज नारकी हुआ हूं तो यहाँ मैं क्या कर सकता हूं? देखिये कितनी बड़ी जिम्मेदारी है इस मनुष्यभव की, लेकिन अज्ञानी इस मनुष्यभव को पाकर, उस बल शक्ति को प्राप्त कर स्वच्छंद होकर जैसा मन चाहता है वैसी ही वृत्ति करने को उद्यमी बन जाता है। चाहे वह अति खोटा व्यसनी ही क्यों न हो चित्त में आया और सामर्थ्य उसके है, कर सकता है तो उन व्यसनों को पापों को सभी को कर सकता है। कहां तो मनुष्यभव से सदा के लिए संसार संकटों से छूटने का उपाय बनाया जा सकता है और कहां यह मनुष्यभव नरक में उत्पन्न होने का कारण बन गया। नारकी जीव ऐसा चिंतन कर रहा है कि अब मेरा भाग्य भी अनुकूल नहीं है और पुरुषार्थ भी मैं कुछ नहीं कर सकता, ऐसी हीन दशा है नरक भूमि।
सम्यग्दृष्टि नारकी वृत्ति―यदि कोई नारकी सम्यग्दृष्टि है तो उस सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व की महिमा देखिये कि ऐसे घोर दु:खों के बीच पड़ा हुआ भी नारकी ज्ञानामृत के पाने से तृप्त रहा करता है। सम्यग्ज्ञान की महिमा देखियेगा, सम्यक्त्व का प्रताप देखियेगा, शरीर के खंड-खंड किए जा रहे हैं, पर ज्ञानी नारकी अपने उपयोग में सम्यक्त्व की भावना बनाता है, अपने स्वरूप का दर्शन करके तृप्त हो रहा है। देखो सम्यग्दृष्टि का नरक में भी बिगाड़ होता है। बेचैन है मिथ्यादृष्टि जीव, देवांगनाओं को मनाने में और नाना तरह की परदृष्टि में आकुलित हैं। भले ही वे मौज मान रहे हैं पर वह मौज व्याकुलता से भरी हुई है। हाँ सम्यग्दृष्टि देव होगा तो वह भी वैसा ही पवित्र है। जैसे कि नारकी दु:खों से नहीं घबड़ा रहा और ज्ञानामृत का पान कर रहा है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि देव सुख और मौज में मस्त नहीं हो रहा किंतु एक ज्ञानामृत का पालन कर रहा है।
ज्ञान ही हमारा रक्षक, पिता, कुटुंब, शरण, सर्व कुछ ज्ञान ही है। खूब विचारो कि हमारे पास सभी साधन हैं, सारी संपदा है, परिजन भी बहुत अच्छे हैं, मुझे सुखी देखना चाहते हैं, पर हमारा ज्ञान खोटा हो, आशय हमारा मलिन हो, पागलपन हमारा छा गया हो तो वहाँ हमारा शरण कौन हो सकता है? केवल हमारा ज्ञान ही हमारा शरण हो सकता है। बुद्धि ठिकाने रहे, इससे बढ़कर कोई वैभव नहीं। धनिक भी हो और बुद्धि ठिकाने न हो, अस्तव्यस्त दिमाग हो, तो उसका भी जीवन क्या जीवन है और जिसका विवेक जागृत हो वह गरीब भी हो, किसी तरह मुश्किल से अपना गुजारा चलाता हो, किंतु हृदय पवित्र हो, ज्ञान सही है तो वह तृप्त रहा करता है। तृप्ति किसी बाहरी चीज से नहीं मिल सकती, तृप्ति तो ज्ञान से ही मिलती है। कितना ही धन जुड़े, तृप्ति नहीं हो सकती। जैसे कितनी भी नदियां आकर मिल जायें तो भी समुद्र तृप्त नहीं होता, इसी तरह धन कितना ही आये पर यह मनुष्य तृप्त नहीं हो सकता। कोई मनुष्य यह कहने को तैयार नहीं है अपने बारे में कि मुझे जो कुछ धन मिला है वह मेरी जरूरत से बहुत अधिक मिला है। इस दुनिया में अपने बड़प्पन की जो चाह लगी है, धनी होकर लोक में मेरा कुछ नाम होगा यश होगा ऐसी जो भ्रांति लगी है उस भ्रांति के कारण यह तृप्त नहीं है। अरे अनंत भव व्यतीत हो गए, उन भवों को कौन जानता है, आज उन भवों की घटना से कौन परिचित है, मेरा क्या यश है अब? जब उन अनंतभवों का कोई यश नहीं रहा अब तो इस भव का भी यश क्या रहेगा? ज्ञान ही वैभव है और अज्ञान ही दारिद्रय है।