वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1758
From जैनकोष
तदूर्ध्वे सति देवेश कल्पा: सौधर्मपूर्वका: ।
ते षोडशाच्युत स्वर्गपर्यंता नभसि स्थिता: ।।1758।।
ऊर्ध्वलोक में कल्पवासी देवों के आवासों का निर्देश―ज्योतिषी देवो के विमानों के ऊपर कल्पवासी देवों के विमान हैं जहाँ 16 स्वर्गों की रचना है । मेरु पर्वत से एक बाल मोटाई के अंतर के बाद स्वर्ग की रचना शुरू हो जाती है । तो स्वर्गों की रचना कुछ अलग नहीं है किंतु पटल के रूप में सब रचनाएँ पायी जाती हैं । जैसे बीच में एक विमान हो, चारों दिशावों में विमानों की लाइन लगे और विदिशा में भी विमानों की लाइन लगे और बीच में जो अंतर पड़ गया उसमें फैल फुट-फूट हटकर अनेक विमान रहते हैं, ऐसे एक फैलाव में जितने ये सब विमान हैं उसे एक पटल कहते हैं, फिर कुछ और ऊपर आकाश में दूसरा पटल है । इस तरह से ये सब 63 पटल हैं जिनके कुछ पटल स्वर्गो में हैं, कुछ पटल स्वर्गों के ऊपर कल्पातीत विमान में हैं । उन सोलह स्वर्गों में इंद्र, लोकपाल, सामानिक, प्रकीर्णक त्रायस्त्रिंश, पारिसद, किलविसक आदि ऐसे 10 प्रकार के देव रहते हैं, उनमें ऐसी कल्पना है । सोलह स्वर्गों में कोई इंद्र है, कोई सामानिक । इंद्र ही वे कहलाते हैं जिनकी सब देवों पर हुकूमत चले । सामांतिक देव वे कहलाते हैं जिनका आराम इंद्र की तरह है मगर हुकूमत नहीं चलती । जैसे जिस प्रकार राजा खाता पहिनता है उसी प्रकार राजघराने के कुटुंब के लोग भी खाते पहिनते हैं पर हुकूमत केवल एक राजा की चलती है इसी प्रकार इंद्र और सामांतिक देव हैं । त्रायस्त्रिंश देव एक मंत्री की तरह हैं । जैसे मंत्रीगण राजा को सलाह देते हैं, राजा के खास अंग हैं इसी प्रकार ये त्रायस्त्रिंश देव इंद्र के खास अंग हैं । ये 33 संख्या में होते हैं इसलिए इनको त्रायस्त्रिंश कहते हैं । यों समझिये कि राजा के 33 मंत्री हों तो इसमें प्राकृतिक बात यह देखो कि कितनी बढ़िया संख्या है यह 33 की । जिसके कोरम 11 बैठते हैं । तो उनमें अपने आप बहु सम्मति नजर आती है परिषद जाति के देव उनके सभासद की तरह हैं । ये अंगरक्षक की तरह हैं जो इंद्र के साथ रहते हैं और इंद्र की रक्षा करते हैं । यद्यपि इंद्र की रक्षा करना कोई आवश्यक नहीं है क्योंकि वे स्वयं स्वरक्षित हैं । किसी भी देव की आयु बीच में नष्ट नहीं होती लेकिन एक वैभव है, इस तरह की विभूति है । लोकपाल कोतवाल की तरह प्रजा रक्षक है । कोतवाल का बड़ी ईमानदारी का दर्जा है । वह लोकपाल अर्थात् उन देवो का कोतवाल एक ही भव के बाद मोक्ष प्राप्त करता है और कोई जाये चाहे न जाय । लोकपाल के बाद हैं प्रकीर्णक देवों की तरह के देव, जो बड़े देवों के वाहन के काम आयें । अर्थात् हाथी, घोड़ा, बैल, सिंह आदिक के रूप रखकर उन इंद्र आदिक देवो को अपने ऊपर सवारी कर के ले जाते हैं । यद्यपि इंद्रादिक देवों को सवारी की आवश्यकता नहीं पर वह तो उनके पुण्य के वैभव की बात है । एक किलविसक जाति के देव हैं, वे बड़े गरीब देव हैं । सभी देवों में निकृष्ट देव हैं जो बाहर-बाहर ही रहते हैं । सभावों में और बड़े देवों में इनका प्रवेश नहीं होता है । इस प्रकार की कल्पना 16 वें स्वर्ग तक में पायी जाती है । 16 स्वर्गो से ऊपर ये कल्पनाएँ नहीं हैं । सोलहवें से ऊपर जो देवों की रचनाएँ हैं उन्हें कल्पनातीत कहते हैं ।