वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 176
From जैनकोष
सततारंभयोगैश्च व्यापारैर्जंतुघातकै:।
शरीरं पापकर्माणि संयोजयति देहिनाम्।।176।।
आरंभयोगों से पापास्रव―निरंतर आरंभ के योग से और जीवघातक व्यापारों से यह काययोग पापकर्म का संचय करता है अर्थात् अशुभ काययोग से अशुभास्रव होता है। यह अशुभ कामयोग है कि निरंतर आरंभ आरंभ में ही लगे रहें। जैसे किसी पुरुष के कितने ही अधिक मिल हैं, फैक्टरी हैं, दुकान हैं, अनेक काम हैं तो उन कामों में निरंतर चित्त बना रहता है। जैसे कि लोग कहते हैं कि हमको तो जरा भी फुरसत नहीं मिलती, इसके बाद यह इसके बाद यह। तो जैसे निरंतर आरंभ के ही कार्य लगे हैं उनमें जो शरीर की प्रवृत्तियाँ होती हैं उसके निमित्त से जो योग होता है वह पापास्रव का कारण बनता है सूत्रजी में तो बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के परिणाम को अत्यंत अधिक बुरा कहा है। अधिक आरंभ की परिस्थिति में इस जीव को अपने आत्मा की सुध होने का मौका कम मिलता है अथवा नहीं मिलता है।
रौद्रध्यानों से विशेषतया पापास्रव―दु:ख भोगने की स्थिति में या यों कहो कि आर्तध्यान की स्थिति में तो स्वरूप की सुध रह भी सकती है, पर विषय-संरक्षण में आनंद मानना ऐसी तीव्र रुचि में आत्मा की सुध का मौका नहीं रहता। इसी विश्लेषण को स्पष्ट करने वाला यह प्रतिपादन है कि आर्तध्यान तो छठे गुणस्थान तक रह सकता है, किंतु रौद्रध्यान पंचम गुणस्थान तक ही रह पाता है। और उसमें भी कुछ विशेषता से विचार करे तो रौद्रध्यान भली प्रकार तो मिथ्यात्व अवस्था में रहता है। सम्यक्त्व जगने पर रौद्रध्यान का कुछ झुकाव नहीं है, किंतु हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह संबंधी जो प्रवृत्तियाँ थी उन साधनों में ही रहने के कारण गृहीदशा में उनसे विराम नहीं मिला है अतएव रौद्रध्यान विषय है, किंतु यह आर्तध्यान तो स्पष्ट दिखता है किसी धर्मी का वियोग हो, किसी साधु का मरण हो, कोई सुयोग्य शिष्य अलग हो रहा हो, अनेक ऐसी स्थितियाँ आती हैं तो उनके चित्त को खेद पहुँचता है। यद्यपि साधुजनों का खेद देर तक नहीं रहता, क्योंकि वहाँ प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत गुणस्थान बराबर बदलता रहा करता है। छठे गुणस्थान की स्थिति दो चार मिनट भी नहीं रहती, इसके भीतर ही 7 वाँ गुणस्थान भी हो जाता है।
प्रमत्तविरत व अप्रमत्तविरत का पुन: पुन: परिवर्तन―प्रमत्तविरत व अप्रमत्तरत गुणस्थान अंतर्मुहूर्त में बदलते रहते हैं। इससे शुद्ध वृत्ति की भी परख हो जाती है। जो साधु लगातार अनेक मिनट अथवा घंटा किसी प्रमाद प्रमाद में ही लग रहा है, अंतर में अप्रमत्त दशा नहीं आती है तो उसका वह प्रमाद छठे गुणस्थान में न रहकर नीचे गुणस्थान का बन जायेगा। यह परिणाम अंत: प्रकट है। कोई साधु बन गया, नग्न दिगंबर हो जाने पर भी अथवा उसे छठा गुणस्थान भी हो जाय, इतने पर भी यह संभव है तो वह मुनि, पर गुणस्थान 5 वां हो जाय। है वह मुनि पर गुणस्थान चौथा तीसरा दूसरा पहिला हो जाय। यह परिणाम की बात है। यद्यपि उस साधु के भीतर मिथ्यात्व की अवस्था आने पर भी बाहर में कुछ अंतर नहीं दिखता, वही समिति, वही व्रत, वही सब कुछ, लेकिन यह तो परिणामों की बात है। यों प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत बराबर बदलते रहते हैं। ऊँचा परिणाम होना, हल्का परिणाम होना, ये दोनों परिवर्तन होते रहते हैं।
रौद्रध्यान को विपदा मानने का पुरुषार्थ―अब समझ लीजिए कि आर्तध्यान से उतनी खराबी नहीं हो पाती जितनी की रौद्रध्यान से पहुँचती है। हम आप इसमें बड़ी विपदा समझे कि हमारा उपयोग किसी विषय में रमे, आसक्त रहे, उसकी ओर ही रुचि जगे और सबसे निर्मल विविक्त चैतन्यस्वरूप की हम सुध न ले सकें, ऐसी स्थिति बने उसको बड़ी विपदा समझना चाहिए। वह हर्ष मानने की स्थिति नहीं है जो पुरुष संसार में रहकर भी सुख दु:ख से उपेक्षा करता है, निर्लेप रहता है उसका बचाव होता है। जैसे नाव पानी में रहती है। पानी में रहकर भी नाव के भीतर चूँकि पानी नहीं है इसलिए तिर जाती है। पानी में नाव के रहने से कुछ बिगाड़ नहीं है, पर पानी नाव में आ जाय तो नाव डूब जाती है, उससे बिगाड़ है। इसी प्रकार हम समागम के बीच रहते है संसार में रहते हैं उससे कुछ बिगाड़ नहीं है किंतु हममें संसार बसें, हम संसार की वस्तुवों को बसायें अपने उपयोग में तो उससे हमारा बिगाड़ है।
सांसारिक सुख की परिस्थिति में बिगाड़―हम दु:ख पाने को अहित मानते हैं और सुख पाने को भला मानते हैं, इस मान्यता में शोधन करना होगा। कदाचित् दु:ख की स्थिति आये, वह मेरा उतना बिगाड़ न कर सकेगी जितना कि सुख की स्थिति आने पर उसे सुख में मग्न हो जाय तो उससे बिगाड़ होगा। तो जब कोई जीव निरंतर आरंभ कर रहा है, उसे प्रभुभक्ति का, गुरुसेवा का कुछ भी समय नहीं प्राप्त है और रात दिन उन्हीं चिंताओं में आरंभ में बसता है तो उसके पापकर्म बँधते हैं।
खोटे व्यापारों में पापास्रव―ऐसे ही जीव खोटे कार्यों से, खोटे व्यापारों से पाप का बंध करता है। पहिले समय में जैन समाज में यह प्रथा थी कि जूतों का, लोहे का ऐसे ही और अन्य खोटा व्यापार नहीं करते थे, इस बात को यदि विशेषता से बताया जाय तो लोग कहेंगे कि यों तो किसी का भी काम न चलेगा। लेकिन जो बात जैसी है वह बात वैसी रहेगी ही। गृहस्थजन यह विवेक रक्खें कि जिससे जंतुओं का घात होता है ऐसे व्यापारों से अलग रहें और प्रत्येक व्यापारों में हम यह सावधानी बनाएँ कि हमसे प्राणघात न हो। जंतुओं का घात करने वाले व्यापारों से भी पापकर्मों का आस्रव होता है।
आस्रव निरोध के अर्थ यत्न―यह आस्रव दु:खदायी है। आस्रव दु:ख कार घनेरे। बुधवंत तिन्हें निरवेरें, यह विकाररूप भाव होने का ही नाम आस्रव है। ये विकार स्वयं दु:खरूप हैं, इसमें दु:खरूप फल मिलेगा और यह दु:खपूर्वक ही उत्पन्न किया गया है। इस आस्रव से विविक्त अपने सहज चैतन्यस्वरूपमात्र अपने आपकी दृष्टि करना, यह है एक कर्तव्य। इन सब बातों के लिए तब एक निर्णय रक्खें कि ज्ञान की वृद्धि करना है। ज्ञान बढ़ाने में जो आनंद होता है, सुखानुभूति होती है वह सुख इन विषय भोगों के सुख से विलक्षण है। किसी तत्त्व की जिज्ञासा हो और उसका समाधान मिल जाय उसका बड़ा आनंद होता है।
ज्ञान से आनंद की प्राप्ति पर दृष्टांत―अभी किसी बालक से सवाल पूछें―बताओ 7 पंजे कितने होते हैं तो वह बालक उसे सुनकर पहिले तो कुछ विह्वल सा हो जायेगा लेकिन जब वह बता देता है पहाड़ा पढ़कर 7 पंजे 35 तो वह कितना खुश होता है? उसको यह खुशी किस बात की हुई? उसे मिठाई नहीं खिलाई जा रही है, कुछ भी तो नहीं खिलाया-पिलाया जा रहा है। जो रोकड़ बही बनाता है, हिसाब लगाते-लगाते अंत में दो आने का फर्क रह गया, ठीक हिसाब नहीं मिलता है तो वह दो आने के घाटे में कितना तो दिमाग दौड़ाता है, कितना-कितना परेशान होता है? उस दो आने का जब तक सही हिसाब नहीं मिल जाता तब तक उसे संतोष न होता। उस दो आने के पीछे वह रात भर जग भी सकता है और कहो 4-6 आने की बिजली भी खर्च कर दे और जब वह फर्क मिल जाता है तब उसकी मुद्रा देखो। तो ज्ञान प्राप्त होने का एक विचित्र ही आनंद होता है।
ज्ञानार्जन का कर्तव्य―संसार के जितने भी समागम हैं, इन समागमों में से कोई भी समागम हम आपके लिए हितकारी न होगा, कोई भी साथ न निभायेगा, किंतु अपने स्वरूप का ज्ञान बने तो इस स्वरूप को निरखकर जहाँ चाहे किसी भी जगह किसी भी परिस्थिति में हम प्रसन्न रह सकते हैं, निर्मल रह सकते हैं, और इन उपायों से किसी समय सर्व कर्मों से, बंधनों से, शरीरबंधन से सबसे छूटकर हम मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। तो कर्तव्य ज्ञानवृद्धि का होना चाहिए। ज्ञान के सामने धन का महत्व न बनायें। जो पुरुष धन को ही महत्व देता है और ज्ञान का कुछ महत्व नहीं समझता, उसकी तो दयनीय स्थिति है। सबसे अधिक महत्व ज्ञान का है। अपने जीवन में धनार्जन का भी उतना ध्यान न रखकर ज्ञानार्जन का ही विशेष ध्यान रखें। और देखिये―ज्ञानार्जन का उद्यम करें तो नियम से ज्ञान मिलेगा। उस ज्ञान से आनंद मिलेगा।