वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 180
From जैनकोष
या संसारनिमित्तस्य क्रियाया: विरति: स्फुटम्।
स भावसंवरस्तज्ज्ञैर्विज्ञैय: परमागमात्।।180।।
कषायों से जीव की बरबादी―इस श्लोक में भावसंवर का लक्षण कहा जायेगा, संसार के कारणभूत है कर्मों के ग्रहण की क्रिया है योग और कर्मों की स्थिति व अनुभाग का कारण है कषाय। उनका अभाव
करने का नाम है भावसंवर। इस जीव को क्लेश देने वाली 4 कषायें हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ। उन कषायों से कर्मों की स्थिति बनती है। कर्मों के अनुभाग में तीव्रता आती है, कर्मों का जमाव होता है। इन कषायों का विनाश किए बिना हम शांति नहीं प्राप्त कर सकते। कषायों को करके किसी ने लाभ नहीं पाया। न लौकिक लाभ पाया और न आत्मलाभ पाया। चारों ओर दृष्टि पसारकर परख लो, क्रोध करके किसी ने कुछ लौकिक समृद्धि पा ली हो सो भी नहीं देखा जा ता है। क्रोधी पुरुष का आत्मा तो भीतर जलता ही रहता है। उसे चैन कहाँ है? आत्मलाभ से वह कोसों दूर है। क्रोध कषाय करके किसने लाभ पाया है।
क्रोधकषाय से हानि का उदाहरण―नेमिनाथ स्वामी के तीर्थ के समय में एक द्वीपायन मुनि हुए हैं जो सम्यग्दृष्टि थे, जिन्होंने तपस्या करके तैजस ऋद्धि प्राप्त की थी। इतने ऊँचे ज्ञानी साधु होकर भी जब द्वीपायन मुनि पर कुछ शराब पिये हुए लोगों ने पत्थर बरसाये, उनको गाली दी, बहुत-बहुत संभाल करने पर भी वे अपने को संभाल न सके और उनके क्रोध उमड़ आया और वह क्रोध उतना तीव्र हुआ कि उनके बाये कंधे से तैजस शरीर निकला। तैजस शरीर निकला यह क्रोध की उनकी सबसे बड़ी स्थिति थी। उसही समय में उनका सम्यक्त्व खंडित हुआ, मिथ्यादृष्टि हुए, और जो तैजस पुतला निकला, उसने फैलकर सारी नगरी को भस्म किया और द्वीपायन को भी भस्म किया। क्रोध में और होता क्या है? क्रोधी जीव दूसरे का भी बिगाड़ कर बैठता है और खुद का भी बिगाड़ कर बैठता है। दोनों का बिगाड़ होने का इससे बढ़कर और क्या उदाहरण होगा?।
मान, माया, लोभ कषाय से हानि―मानकषाय करके भी जीव क्या पाता है? घमंड की बात बगराने से लोगों में कुछ इज्जत नहीं मिलती। सब लोग मन में उसे धिक्कारते हैं। यह कैसा मूर्ख है, कैसा घमंडी है? घमंड के सिवाय इसके कुछ काम ही नहीं है, इसे कुछ अपनी सुध नहीं है, सभ्यता नहीं है, नम्रता नहीं है। यह तो बड़ा उजड्ड है। उसके प्रति लोग इस तरह की धारणा रखते है और ऐन समय पर कोई कह भी बैठते हैं जिससे घमंड करने वाले की सारी पोजीशन नष्ट हो जाती है। इस लोक में भी मान से इस जीव ने क्या पाया और मानवश परलोक का लाभ तो कुछ भी उठा ही न सकेगा। मानकषाय से भी जीव को न शांति मिलती है, न लौकिक समृद्धि मिलती है और न आध्यात्मिक लाभ है, न परलोक का लाभ है। कषायों से किसने क्या लाभ पाया है? घर-घर में भी देख लो यही बात है। कषाय करके खुद दु:खी हुए और दूसरों को दु:खी कर डाला। गांव में, समाज में भी यही बात है। कषाय करके खुद भी बरबाद होते हैं और दूसरों को भी बरबाद करते हैं। मायाचार और लोभ के परिणाम से तो यह जीव पाता ही क्या है? ज्वाला में जलना भुनना इसका बना रहता है।
कषायों के अभाव में शांतिलाभ व संवर―मोह व कषायों को रोके इसका नाम भावसंवर है और कषायों के रुकने से द्रव्यसंवर स्वयं अपने आप होता है। जो भावसंवर के उपाय से आत्मसमृद्धि पाने में सफल हुए हैं ऐसे मुनीश्वर संतों ने कर्मों से बचने का यह उपाय बताया है। कषायों के दूर करने से जो आनंद प्राप्त होता है उसको किसी दूसरे से पूछने की क्या जरूरत है, खुद अपनी कषायें शांत करके निर्णय प्राप्त कर लें कि कषायें न करने से कितना लाभ है? व्यर्थ को गाली गलौच हो गयी, मारापीटी हो गयी, लो कोई अंग टूट गया, पुलिस भी हैरान करे, मुकदमेबाजी हो गयी, तत्त्व क्या निकला? दो चार मिनट का क्रोध न शांत कर सके, अपने को भी बहुत सता डाला और दूसरों को भी बहुत सता डाला, इसमें तत्त्व कुछ नहीं निकला। तो कषायों से इस जीव को शांति नहीं प्राप्त होती है। तत्त्व की बड़ी महिमा है। जीव का उद्धार संवर से प्रारंभ होता है और उद्धार होने के पश्चात् भी संवरभाव बना रहता है।
कल्मषतानिवृत्ति के लिये सत्संगति व स्वाध्याय करने की शिक्षा―शिक्षा की बात इतनी तो ग्रहण कीजिये ही कि हम अज्ञानभाव दूर करें, मोह मिथ्यात्व मिटायें, कषायें शांत करें तो हमारी यह सत्प्रवृत्ति, हमारा यह पुरुषार्थ हमारा कल्याण करेगा। हम अपने आपको न संभाल सकें और दूसरों से ही आशा बनाये रहें कि इनमें हमें सुख मिलेगा अथवा दूसरों पर कुदृष्टि बनाये रहें कि ये मेरे बाधक हैं, इनको तो मजा देना चाहिये, इनका विघात करना चाहिए, ऐसी बाह्यदृष्टि बनाये रहें तो इससे अपना कोई लाभ नहीं है। ऐसा जानकर मोह को हटाने का और कषायों के दूर करने का अपना यत्न बनाना चाहिये। यह यत्न मिलेगा, स्वाध्याय से और सत्संगति से। ये दोनों बातें एक दूसरे को प्रेरणा देने वाली हैं। स्वाध्याय से भावशुद्धि होती है। ज्ञानार्जन से निर्मलता बढ़ती है और सत्संग के लिए मन बढ़ता है असत्संग से हट जाता है, और सत्संग करने से जो कुछ कमी रहती है उसकी दृष्टि आती है, उसे दूर करने का भाव जगता है, इस कारण सत्संगति और स्वाध्याय―इन दो बातों में विशेष प्रयत्न करना चाहिये।