वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1831
From जैनकोष
सर्वस्तस्य प्रभावोऽयमहं येनाद्य दुर्गते: ।
उद्धृत्य स्थापितं स्वर्गराज्ये त्रिदशवंदिते ।। 1831 ।।
पूर्वकृत पुण्यधर्माचार के फल का निर्णय―जो-जो कुछ तपश्चरण व्रत, संयम, दया, दान और परोपकार आदिक कार्य मैंने पूर्व भव में किए थे उसी का यह प्रभाव है कि मैं दुर्गति से निकलकर स्वर्ग राज्य में उत्पन्न हुआ हूँ । यद्यपि मनुष्यभव कोई दुर्गति नहीं है लेकिन सांसारिक दृष्टि से मनुष्यभव में चूँकि रक्त आदिक धातुवें हैं, नाना प्रकार के संकट हैं, घृणा के बहुत स्थान हैं उस दृष्टि से यह दिव्य शरीर कुछ विशिष्टता रख रहा है इस कारण यहाँ उद्धार की बात कही गई है । वैसे तो जीव का उद्धार मनुष्यभव से ही होता है, कोई भी सिद्ध ऐसा नहीं है जो कि मनुष्य न होकर अन्य किसी गति से सिद्ध हुआ हो? चाहे कोई नरक से आकर मनुष्यभव पाकर मोक्ष गया हो या कोई तिर्यंच से आकर मनुष्यभव पाकर मोक्ष गया हो, अथवा देवगति से आकर मोक्ष गया हो, किंतु जो भी पुण्यात्मा मोक्ष गए हैं वे मनुष्यभव को पाकर ही मोक्ष गए हैं । फिर वे उस पुण्य के फल में दिव्य वैक्रियक शरीर को निर्मल निरखकर और सुधा तृषा आदिक वेदनाओं से रहित निरखकर कहा जा रहा है कि पूर्वभव में ऐसे-ऐसे पुण्य और धर्म के कार्य किये थे जिनके प्रताप से वहाँ से उद्धार पाकर, मलिन शरीर से निकलकर आज मैं स्वर्ग राज्य में आया हूँ, जो देव कर के वंदनीय हूँ । इस प्रकार यह सौधर्म इंद्र अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव के परिणामों का स्मरण कर रहा है, और जो फल पाया है वह सब इस धर्म के प्रसाद से ही पाया है, ऐसा जानकर वह इंद्र प्रसन्न हो रहा है, लेकिन थोड़ी ही देर बाद वह वहाँ की सौंदर्य युक्त देवांगनाओं मे अपना उपयोग देगा, उनके राग अनुराग की ज्वालावों में जलता रहेगा । इस दिव्य शरीर से निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती है, यहाँ से मरकर नियम से नीचे ही जाना पड़ेगा, इन सारी बातों का वह विचार कर के कुछ विशाद भी करता है और उस विशाद में उस ही मनुष्यभव को यह इंद्र महत्व दे रहा है । जिस मनुष्यभव में धर्म धारण कर के आज वह स्वर्ग के उस निर्मल वातावरण में आया हुआ है उसका किस प्रकार यह सौधर्म इंद्र चिंतन कर रहा है, इसका वर्णन अब आगे आयगा ।