वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 200
From जैनकोष
दशलक्ष्ययुत: सोऽयं जिनेर्धर्म: प्रकीर्तित:।
यस्यांशमपि संसेव्य विंदंति यमिन: शिवम्।।200।।
कल्याणकारिणी धर्मजिज्ञासा―इस जगत को पवित्र करने वाला और जगत का उद्धार करने वाला एक धर्म ही है, जिस धर्म का अंशमात्र भी सेवन करके योगीश्वर शिव का अर्थात् कल्याण का अनुभव करते हैं। धर्म के अंशमात्र भी सेवन करने की बात यों कही गई हालांकि अंशमात्र सेवन से मुक्ति नहीं मिलती लेकिन जो अंशमात्र भी सेवन करे उसके धर्म की परिपूर्णता हो जाती है और वह निर्वाण सुख को प्राप्त करता है। वह धर्म क्या है जिस धर्म का सेवन करके, धर्म की उपासना करके जीव संसार के संकटों से सदा को छूट जाता है। यह बात सब जीवों के लिये कही जा रही है। सब जीवों की भांति हम भी जीव हैं हमें शांति चाहिये। शांति का क्या उपाय है? उस पर हम चलकर शांति प्राप्त करेंगे ऐसा चित्त में संकल्प होना चाहिए।
वस्तुस्वभावरूप धर्म व उसका पालन―पदार्थ सब अपने स्वरूप से अपनी जातिरूप हैं। हम आप सब जो शरीर के भेद से भिन्न-शरीर में पड़े हुए हैं सबका स्वरूप एक है, वह स्वरूप क्या है? ज्ञान ! सब जीवों में ज्ञानस्वरूप मौजूद है। ज्ञान बिना कोई नहीं है। ज्ञान अपना स्वरूप है और यह ज्ञानमय मैं पदार्थ हूँ। इस मुझ ज्ञानमय पदार्थ को शांति चाहिए और शांति के उपाय पर यत्न करना चाहिए। इतना ही मात्र अपने साथ रिश्ता समझें। जिसे कल्याण करना हो वह जब कल्याण के लिए अग्रसर होता है तो उसको अपने आपमें एकरूपता का अनुभव करना चाहिए। शरीर के भेद से जो समाज में भेद पड़ गए हैं उन भेदों पर दृष्टि रखकर धर्म पाया नहीं जा सकता। धर्म तो जीव का निज स्वरूप है। जब इस जीव को नानारूप अनुभव करने लगे कोई तो धर्म का परिचय नहीं मिल सकता। इससे इन पर्यायों के संस्कारों को छोड़कर धर्म की बात सुननी चाहिए। मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक कुल का हूँ, अमुक वातावरण का हूँ, ऐसा अपने आपमें विश्वास यदि बना हो तो धर्म का स्वरूप हृदय में आ नहीं सकता। इस कारण इन सब क्षोभों को विकल्पों को छोड़कर अपने आपको ऐसा देखने लगें कि मैं तो जीव हूँ। और इस मुझ जीव को शांति चाहिए। ऐसा अपने आपको सही रूप में एक रूप समझकर धर्म की बात सुनी जाय तो अवश्य सफलता मिलेगी।
जीव का धर्म और शरण्य―इस जीव को केवल धर्म की शरण है। वह धर्म क्या है उसको सही रूप में तो चूँकि वह अभेद है अत: वचनों से नहीं बताया जा सकता। फिर भी उसकी समझ के लिए कुछ व्यवहार कथन का आश्रय लेकर समझना है। धर्म तो प्रत्येक पदार्थ के साथ लगा हुआ है क्योंकि पदार्थ के स्वभाव का नाम धर्म है। हम आप जीव हैं और इसका स्वभाव है ज्ञान, शुद्ध जानन। रागद्वेष के लपेट में धर्म नहीं है। क्योंकि हम आपका वह स्वभाव नहीं है। धर्म वह होता है पदार्थ का जो उस पदार्थ में सदा रहे। जो कभी रहे, कभी न रहे वह पदार्थ का स्वभाव नहीं और धर्म भी नहीं है। जैसे जीव में क्रोध कभी रहता, कभी नहीं रहता सो यह क्रोध जीव का धर्म नहीं है। घमंड भी कभी रहता, कभी नहीं रहता, वह भी धर्म नहीं है। मायाचार और लोभ भी इस जीव में कभी रहता कभी नहीं रहता, इसलिए छलकपट करना, लोभ करना भी धर्म नहीं है। कषाय करे तब भी कुछ न कुछ ज्ञान चलता ही है, न करे तब भी ज्ञान है। बेहोश भी पड़ जाय तब भी अंतर में ज्ञान हैं, ज्ञानी रहे वहाँ भी ज्ञान है, मूर्ख है उसके भी ज्ञान है। ज्ञान के बिना जीव कभी नहीं रहता, इसलिए जीव का स्वरूप ज्ञान है।
धर्मपालन―जब यह कहा जाय कि धर्म करो तो उसका अर्थ यह लगाओ कि सिर्फ ज्ञान करें, रागद्वेष न करें। धर्मपालन करें इसका अर्थ इतना है कि मोह रागद्वेष न करें और केवल हम जाननहार बनें। यह धर्म की निष्पक्ष व्याख्या है। इसमें न मजहब का रंग है, न रागद्वेष का रंग है, युक्ति और अनुभव से भी देख लो जब आप रागद्वेष न करेंगे और सिर्फ जाननहार रहेंगे तो आपको शांति मिलती है या नहीं। प्रयोग करके अनुभव करके देख लो, जब कभी आप किसी रागद्वेषमोह में पड़ेंगे, अनेक विकल्प उठायेंगे तो उन कल्पनाओं से आप दु:खी रहा करेंगे। हम आप प्रभु को पूजते हैं तो क्यों पूजते हैं, उनमें क्या विशेषता है कि हम तो पूजें और वे पुजें? अरे उनमें ये रागद्वेष, मोह नहीं रहे, वे तीन लोक, तीन काल के मात्र जाननहार हैं अर्थात् वीतराग सर्वज्ञदेव के ऐसे शुद्धस्वरूप की जब हम आराधना करते हैं, पूजा करते हैं तो हम लोगों को स्वयमेव ज्ञानोत्साह प्राप्त होता है।
दशलक्षणमय धर्म―धर्म का स्वरूप एक है, जीव का स्वरूप एक है, आनंद का स्वरूप एक है, फिर भी विश्लेषण करके इस धर्म का 10 रूपों में यहाँ वर्णन किया जा रहा है। उस धर्म के 10 अंग हैं―क्षमा, नम्रता, सरलता और निर्लोभता, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन 10 धर्मरूप वृत्ति हो तो इस जीव को न क्लेश रहेगा और न जन्म-जन्म भटकना पड़ेगा।
क्षमाधर्म- धर्म का प्रथम अंग है क्षमा―क्रोध न करना। क्रोध से कितनी हानियाँ होती हैं उन्हें सब लोग जानते हैं। क्रोध करने से फिर क्रोध ही क्रोध बढ़ता है और क्रोध रहने से बुद्धि सही काम नहीं करती। जैसा चाहे अटपट जो चित्त में आये वैसा ही करने लगते हैं। दूसरों से लड़ें, झगड़ें, दूसरों को मार दें। न मार सकें तो जो सिपाही हैं पड़ोसी हैं वे सब इसे दंड देते हैं। क्रोध से हानि ही हानि मिलेगी, इससे लाभ कुछ नहीं है। बड़े पुरुषों को देखा होगा उनके हृदय में क्रोध कम रहता है। तभी ही बहुत कठिन प्रतिकूलता हो, पर उन्हें क्रोध आता है तो वह भी दूसरों के हितरूप आता है। क्रोध से यह जीव जलता है, संताप सहता है और क्षमाभाव आ जाय तो जीव को शांति प्राप्त होती है।
क्षमा वीरस्य भूषणम्―क्षमारूप प्रवृत्ति करने में बहुत बल की आवश्यकता है। जो शरीर से कमजोर है, जो दिल के कमजोर हैं, जो ज्ञानहीन हैं ऐसे पुरुष के क्रोध जल्दी उमडता है। क्रोध न उत्पन्न हो उसके लिए बलिष्ठता चाहिए और देखते भी तो रहते है कि बली पुरुष क्षमाभाव धारण करते हैं। क्षमा वीर का भूषण बताया गया है। यह क्षमा एक धर्म का अंग है। कोई पुरुष कमजोर है और वह अपराध करता है तो उसके अपराध को क्षमा कर दें। अपने से बलिष्ठ हो कोई तो उसका यह बिगाड़ेगा क्या, वहाँ जरूर गम खाया जाता है। वह वास्तव में क्षमा नहीं है। चित्त में दूसरों के बिगाड़ करने का भाव उत्पन्न न हो उसे क्षमा कहते हैं। क्षमाशील पुरुष के पास अनेक लोग निर्भयता से बैठते हैं और उसकी मंडली में निर्भयता से रहते हैं। क्षमाशील पुरुष किसी से बदला लेने का भाव नहीं रखता, कोई उसे हैरान भी नहीं करता। और अध्यात्म में यदि क्षमाभाव उत्पन्न हो तो वहाँ वास्तविक आनंद बरसता है। क्षमा धर्म का अंग है। अपना जीवन क्षमा से भरा हुआ होना चाहिए। क्रोध की प्रवृत्ति करने में तत्त्व कुछ नहीं निकलता। क्रोध करना अधर्म है और क्षमा करना धर्म है।
मार्दवधर्म―धर्म का दूसरा अंग है नम्रता। जो अज्ञानी जन हैं वे बाह्य वस्तुओं में मोह रखा करते हैं। अपने शरीर को यह मैं हूँ इस प्रकार का विश्वास रखा करते हैं, उन्हें ही घमंड उत्पन्न होता है जरा-जरासी बात पर। मैं इतना श्रेष्ठ हूँ, मुझे लोग यों कह देते हैं, मेरे साथ ऐसा बर्ताव है, मेरा कहीं कुछ पूछ नहीं है कुछ भी कल्पनाएँ उठाते हैं, शरीर में आत्मबुद्धि करने वाले पुरुष और अपना अभिमान प्रकट करते हैं, लेकिन दुनिया अभिमान करने वाले को मान दे ही ऐसा नियम तो नहीं है। यह अभिमानी पुरुष जैसा चाहता है लोक में वैसी बात मिलती नहीं है तो यह चित्त में दु:खी होता है। अभिमान करना अधर्म है और नम्रता करना धर्म है। नम्र पुरुष लोगों की दृष्टि में कितना आदेय रहता है। इज्जत का, आदर का पात्र रहता है। नम्र पुरुष स्वयं सुखी रहता है और उसके वातावरण में आये हुए और लोग भी सुखी रहते हैं किंतु घमंडी खुद अपने आपमें दु:खी रहता है और उसके निकट जो उसके मित्र हों वे भी दु:खी हो जाया करते हैं। घमंडी पुरुष को कोई मित्र बनाकर रखे तो उससे शांति की आशा नहीं रखी जा सकती है। घमंडी पुरुष को अपने घमंड की सिद्धि के लिए यदि मित्र का अपमान भी करना पड़े तो वह इसके लिए भी तैयार रहता है। मान करना अधर्म है। नम्रता से रहना, विनयपूर्वक रहना यह धर्म है। जो दूसरों को अपना कुछ समझेगा तो दूसरे भी इसे अपना समझेंगे।
गर्वित होने का अनवकाश―दुनिया में सारभूत बात क्या है जिसके लिए घमंड बगराया जाय? न यह खुद रहेगा, न दिखने वाले ये लोग रहेंगे। यह संसार आने-जाने वालों की सराय है। कोई यहाँ आज है कल नहीं है, जो कल तक न था वह आज आ गया। यहाँ सारभूत बात कुछ न मिलेगी। फिर किसके लिए अभिमान करते हों? घमंड करने लायक कोई बात हो तो चलो घमंड करने से कुछ सिद्धि तो मिली, लेकिन यह घमंड का भाव इतना बुरा है और इतना नि:सार है कि इससे कुछ सिद्धि भी नहीं है, किंतु अभिमानी पुरुष इसमें भ्रष्ट रहा करता है। कभी-कभी क्रोध से भी कोई खुदगर्जी की बात सिद्ध हो सकती है। कभी माया लोभ से भी बात बन सकती है। पर मान करने से कौनसी बात बनती है? बनती हो तो बिगड़ जाय। मान करना अधर्म है, नम्रता करना धर्म है। विनयपूर्वक रहना धर्म है।
मार्दव और ज्ञान का निकट संबंध―भैया ! धर्म तो है ज्ञान, और ज्ञान प्रकट होता है उस पुरुष के जो नम्र होता है, विनयशील होता है। नीति में बताया है कि विनय विद्या को प्रदान करती है, और खास करके धर्मसंबंधी विद्या तो विनय बिना नहीं आ सकती। लौकिक विद्या तक भी विनय बिना नहीं आती। कोई छोटा भी किसी कला का मास्टर हो उससे कोई धनी पुरुष सीखे, उसे पैसा भी बहुत देता हो, पर बिना विनय के वह विद्या भी उसे आ नहीं सकती, फिर धर्म की बात ही अनोखी है, तो वह विनय बिना आ ही नहीं सकती, बल्कि यह समझो कि पढ़ाता भी कोई नहीं है, शिष्य अपने विनयभाव के कारण गुरु से बात खींच लेते हैं, एक कवि ने इस विषय में बड़ा प्रकाश डाला है, पढ़ाने वाला कौन? शिष्य स्वयं अपने हार्दिक विनय से इस प्रकार वह समर्थ बन जाता है कि गुरु की विद्या को खींच लेता है, तो ज्ञान की बात विनय बिना नहीं आ सकती, और ज्ञान ही धर्म है, तो धर्म का एक अंग है नम्रता, विनय। हमारे जीवन में नम्रता रहें, विनय रहे तो हम धर्म के पात्र हैं, सुख शांति पा सकते हैं।
आत्मतत्व का नाता मानने का प्रभाव―मूल बात तो यह है कि जिस पर हम आप सबको बहुत-बहुत ध्यान देना चाहिए। वह बात यह है कि जब आप धर्मपालन की बात मन में लायें तो सिर्फ अपने को मैं जीव हूँ, इतना ही देखें, मैं इस जाति का, इस कुल का, इस मजहब का, इस वातावरण का हूँ इस तरह न देखें। यदि वास्तविक मायने में धर्म चाहिए और धर्म के फल में शांति चाहिए तो अपनी सिर्फ यह नीति लायें कि मैं जीव हूँ, मुझे धर्म चाहिए, मुझे धर्म खोजना है। मेरा धर्म क्या है और उस धर्म का पालन करके शांत होना है, यह श्रद्धा और दिशा लायें तो धर्म का मार्ग अवश्य मिलेगा। यहाँ धर्म के नाम पर कुछ से कुछ बन जाने की चेष्टा का पक्ष क्यों बन जाता है, उससे लाभ नहीं है। मुझे कोई जाने या न जाने, मैं यदि अपने आपमें धर्म कर लूँ तो मेरा बेड़ा पार हो जायगा और जिसका बेड़ा पार होगा उस ही पुरुष के निमित्त से दूसरे का भी भला होगा। इससे अपने को केवल जीव का नाता मानकर, जीव का धर्म क्या है? उसे मुझे करना है, ऐसी दृष्टि बनायें।
आर्जव धर्म―धर्म के अंगों में तीसरा धर्म बताया है सरलता। जो मन में हो वह वचन से कहे, वैसा ही काय से परिणमन करे। मन में कुछ और हो, वचन में कुछ और हो और काय से और चेष्टा करे यही मायाचार है। मायाचार अधर्म है। किसके लिए मायाचार किया जा रहा है? इतनी हिम्मत बनना चाहिए कि चाहे जो उपद्रव आते हैं वे सब आयें किंतु हम अपना धर्म न छोड़ेंगे। धर्म क्या? सरलता। मायाचार न रखना। जो बात सही है वैसा ही करना सरलता धर्म है।
वैतृष्ण्य धर्म―चौथा अंग बताया है निर्लोभता, उदार परिणाम होना। अब बतलाओ प्राय: समर्थ तो सब हैं किंतु लोभ का रंग इतना चढ़ा हो कि पास के लोग भूखे दु:खी रोगी रहते हों और समर्थ होने पर भी उनका दु:ख दूर न करें, कुछ अपने लोभ का त्याग न करें तो बतलाओ वहाँ धर्म की बात कैसे समा सकती है? यह सोचना भूल है कि हम पैसे को बनाये रहें, खर्च न करें, रखे रहें तो यह पैसा जुड़ जायगा। वह तो पुण्य से जुड़ता है। जैसे कुवें में से कितना ही पानी निकालते जाओ, कुवां पानी की संचय करके नहीं रखता, कुवें में स्रोतों से पानी आता रहता है ऐसा ही वैभव समृद्धि की प्राप्ति का उपाय है पुण्य, धर्म। जिन्हें सांसारिक सुख भी चाहिए उनका भी कर्तव्य है कि वे धर्म का पालन करें। धर्म का यह अंग है निर्लोभता, पवित्र मन हो जाना। लोभ करना अधर्म है और लोभ न रहे, हृदय उदार रहे वह धर्म है।
धर्मस्वरूप के अवगम का स्वयंसाधन―भैया ! जो धर्म करेगा वह नियम से शांति पायेगा। मैं जीव हूँ, मुझे अपना धर्म चाहिए, इस भावना को रखकर जीवन में बढ़ें और सचरूप से धर्म की खोज करें तो धर्म अवश्य मिलेगा। हम आप ज्ञानी तो है ही। ज्ञान स्वरूप हैं यदि ऐसा सत्य आग्रह कर लें कि मुझे बहकाने वाले दुनिया में बहुत लोग हैं। कोई कहता है इस तरह बढ़ो, इस तरह रहो, इस तरह हाथ चलाओ, वहाँ धर्म है, कोई बलि में धर्म कहता, कोई किसी में धर्म कहता। बहकाने वाले साधुजन भी बहुत हैं। हम किसको अपना धर्म मानें, कहाँ हम अपना निर्णय बनायें? यदि ऐसा कुछ संदेह हो, उलझन हो और जो कि प्राय: जगत में हो रहे हैं तो आप केवल एक उपाय करें। मुझे किसी की नहीं सुनना है। मैं स्वयं ज्ञानरूप हूँ ना, तो अपने आप मुझमें वह प्रकाश आयेगा जो यह बतायेगा कि धर्म यह है।
धर्मस्वरूप के स्वयंसमाधान के लिये पात्रता―भैया ! अपने धर्मस्वरूप का समाधान स्वयं मिले, इतने बड़े काम कि लिए स्वच्छ ईमानदारी का सत्य का ऐसा आग्रह करना होगा कि कुछ भी विकल्प चित्त में न रहे। यह तक भी विकल्प न रहे कि मैं अमुक हूँ, अमुक नाम का हूँ, आराम से अपने आपमें झुककर यों आग्रह करके बैठ जाय कि मुझे प्रकाश चाहिए और वह भी अपने आपमें से चाहिए और हमें समझना है कि मैं कौन हूँ, किस स्वरूप का हूँ और मेरा कर्तव्य क्या, मेरा धर्म क्या, मेरी चाल क्या? इस तरह का अपने आपसे उत्तर लेने का हठ मानने में ठहर जाओ तो आपको उत्तर मिलेगा। लेकिन उसमें यदि कोई पक्ष रागद्वेष कल्पनाएँ विकल्प बनायेगा तो उत्तर न मिलेगा। हम आपका कर्तव्य है कि क्रोध, मान, माया, लोभ―इन चार कषायों को दूर करें, क्षमा, नम्रता, सरलता और उदारता इन चार गुणों को प्रकट करें, इन चार गुणों में वृद्धि करें तो हम आपको बहुत शांति प्राप्त होगी। सबका धर्म ही रक्षक है, दुनिया में अन्य कोई रक्षक नहीं है, ऐसा अपना निर्णय बनायें और धर्म की ओर सच्चे दिल से लगें तो इसमें शांति प्राप्त होगी।
धर्मप्रयोगपद्धति का दर्शन और उद्देश्य―धर्म के प्रकरण में सर्वप्रथम आवश्यकता होती है―चारों प्रकार की कषायें न हों। इसके बिना आचरण का प्रारंभ ही नहीं माना गया है जो मोक्षमार्ग में साधक हो। 10 प्रकार के धर्मों में 4 प्रकार के अंग तो बता दिये गए हैं क्रोध न करना, घमंड न करना, मायाचार न करना और लोभ न करना। अब इसके बाद जो 6 प्रकार के अंग शेष रहे हैं उसकी प्रक्रिया देखिये कितनी प्रयोगात्मक है? इस मनुष्य का अंतिम लक्ष्य है ब्रह्मचर्य। ब्रह्म मायने आत्मा उसमें चर्य मायने मग्न हो जाना। आत्मा में मग्न हो जाना यही है धर्म का उत्कृष्ट रूप। धर्म किसलिए किया जाता है? आत्मा आत्मा में मग्न हो जाय, किसी भी प्रकार की कल्पनाएँ न उठें, रागद्वेष, मोह ममता संकल्प विकल्प चिंता शोक किसी भी प्रकार के विकल्प न रहें और यह आत्मा में निर्विकल्प मग्न हो जाय, यही है धर्म करने का असली प्रयोजन। इस प्रयोजन को जोड़कर यदि अन्य प्रयोजन मन में आते हों, इस दुनिया में अपना मजहब फैलाना, लोगों को अपने धर्म की बात बताना, अपने धर्म का प्रचार करना लोग समझ जायें कि यह समाज बहुत उत्कृष्ट है, अथवा लोक में यश मिलता है धर्म की बात करने से। सो इस उपाय से यश मिले अथवा विषय कषाय के प्रयोजन सिद्ध होते हैं धर्म के करने से, सुख समृद्धियाँ होती हैं, स्वर्ग मिलता है, पुण्य बँधता है आदि अन्य प्रयोजन रखकर धर्मपालन करे कोई तो वह धर्मपालन नहीं है। जिसने अपने उद्देश्य पहिले बनाये ही नहीं हैं उसको धर्म की दिशा नहीं मिलती। धर्म करने का मूल प्रयोजन है यह ब्रह्मचर्य। आत्मा आत्मा में मग्न हो जाये। तो इस ब्रह्मचर्य की सिद्धि के लिए हमें क्या करना पड़ता है? वह ढंग बताया है 10 अंगों में।
सत्यधर्म का विकास―पहिले तो आत्मा की सफाई करें। कषायों से मलिन यह आत्मा कषायों से दबकर अपने प्रभु का घात कर रहा है। और प्रभु में मग्न नहीं हो पा रहा है। अत: पहिले कषायों का अभाव करना गुस्सा न रहे, अभिमान की बात न आये, मायाचार न रहे, किसी की परवस्तु का लोभ न रहे। जब ये चारों कषायें नहीं रहती हैं तब आत्मा में सत्य प्रकट होता है। जब तक कषायें है तब तक यह आत्मा असत्य है, गलत है। स्वच्छता होने पर ही समीचीनता प्रकट होती है। तो चारों कषायें जब नहीं रहीं तब इसमें 5 वाँ अंत: सत्य धर्म प्रकट हुआ। अब सफाई आयी आत्मा में। कषायों के रहते हुए आत्मा में सच्चाई नहीं रहती। मोटे रूप में भी देखिये तो सत्यपालन की बात तब तक नहीं बन पाती है जब तक कषायें मंद न हों। जिसे गुस्से की प्रकृति पडी है वह गुस्से में कई बार झूठ बोल सकता है। अभिमानी लोग झूठ बोला ही करते हैं। मायाचार में तो झूठमूठ का ही काम है। लोभकषाय के वश होकर लोग झूठ बोलते ही हैं। तो जहाँ कषाय जग रही है वहाँ सच्चाई कैसे हो सकती है और जब तक सच्चाई नहीं आ सकती है। तब तक धर्म का पालन सही ढंग से हो ही नहीं सकता। इसी कारण धर्म के प्रकरण में क्षमा, नम्रता, सरलता और उदारता के पश्चात् सत्य का क्रम दिया है।
संयमधर्म―जब आत्मा सत्य हो गया तो उसका ज्ञान संयत बन सकता है। सच्चाई के बिना संयम नहीं पल सकता। जैसे कोई एक आक्सी कांच होता है जिसे धूप में रख दो और इस ढंग से सीधा करके रखो कि किरणों का संयम हो जाय, किरणें केंद्रित हो जायें तो उसके नीचे रहने वाली वस्तु जलती रहती है। यदि वह कांच किसी लेप से मलिन है, मिट्टी लगी है, कूड़ा, राख लगी है तो उस कांच से तो चीज जलने का नाम नहीं बन सकता। इससे पहिले कांच को साफ किया जाय। जब कांच में समीचीनता प्रकट हो गयी तब किरणों का संयम बन सकता है, ऐसे ही आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ ये मैल कूड़ा कचरा लगे हुए हों तब तक आत्मा में वह प्रताप नहीं आ सकता कि वह कर्मों को भस्म कर सके और ब्रह्मचर्य की साधना बना सके। इस कारण सबसे पहिले इन कषायों के कूड़े को हटाया जाता है। कषायें हटने से जब आत्मा में सच्चाई प्रकट हुई तब इसमें वह सामर्थ्य आ गयी कि अपने ज्ञान किरणों को केंद्रित करके एक आत्मस्वरूप संयत कर सकता है। यह हुआ संयम।
तप धर्म―संयम धर्म के बाद आत्मा में ऐसा प्रताप फैलता है कि इसमें तप उत्पन्न होता है, जैसे उस कागज में सूर्य की किरणें केंद्रित हो जाने से वहाँ एक ऐसा प्रताप उत्पन्न होता है कि ताप उत्पन्न होता है। तो इस तरह यह अध्यात्मसंयम बनने से आत्मा में एक प्रतपन होता है जिसे कहो चैतन्यप्रताप। शारीरिक तप की बात नहीं कह रहे किंतु यह आत्मा अपने आत्मा में ही तप जाय ऐसे तप की बात कह रहे हैं। यों अब इस प्रयोगविधि में उत्तम तप धर्म का अंग बना।
त्यागधर्म―जब चैतन्य प्रताप, ऐसा तप उत्पन्न हुआ तो आत्मा में जो भी त्यागने योग्य बात है, बेकार की बात है वह सब दूर होने लगती है अर्थात् विकारों का त्याग होने लगता है। जैसे कि उस कागज में सूर्य किरणों के केंद्रित होने से जो एक प्रताप, ताप उत्पन्न होता है उसके कारण नीचे रहने वाले रुई आदिक में एक त्याग होने लगता है। भार की चीज जलने लगती है, हट जाती है। इसी प्रकार ज्ञानसूर्य की किरणों के आत्मा में संयत होने पर हुए प्रतपन के प्रताप विकार जलने लगते हैं।
जब त्याग उत्पन्न होता है तो त्याग का यह फल है कि वहाँ फिर कुछ न रहे। जब जल गई वह रुई तब सब निर्भार हो गया, कुछ नहीं रहा। कुछ न रहने का ही तो नाम आकिंचन्य है। यह आत्मा किसी पद्धति से मलिनताओं से हटकर अपने आत्मा में मग्न होता है उसकी पद्धति इन दश धर्मों में बतायी गई है।
धर्माड्.गों के क्रमविन्यास का समर्थन―महापुरुष जिस बात को बताते हैं, उसमें जो क्रम रखते हैं उस क्रम में भी मर्म होता है। यों तो अट्टसट्ट भी क्रम रख सकते थे। रखें चाहे 10 ही नाम, पर आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, क्षमा, संयम, मार्दव याने जिस चाहे क्रम से बोल सकते थे, पर महापुरुष जो कुछ भी बोलते हैं उनकी बुद्धि इतनी स्पष्ट है कि वे बिना यत्न किए, बिना जोर लगाये ऐसा बोलेंगे कि जिस क्रम में अनेक धर्म भरे हुए होते हैं। एक उदाहरण के लिए सूत्रजी का एक स्थल देखो―स्थावरों के 5 भेद किए हैं―पृथ्वी, जल, अग्नि , वायु और वनस्पति। इस क्रम को त्यागकर अगर और ढंग का क्रम रखें तो कई शिक्षाओं का लोप हो जायेगा। सबसे पहिले तो पृथ्वी नाम रखा वह सबका आधार है। उस पर ही सब बातें चलती हैं और उसके बाद जल है जो इस पृथ्वी का निकट संबंधी है और इस पृथ्वी और जल के मूल उपादान से ये सब बातें प्रकट हो गई हैं जो जीवों के जीवन का आधार है। इसमें खास जानने की बात यह है कि अग्नि बहुत भयंकर चीज है, उपकार की भी चीज है और लग जाये तो सब स्वाहा हो जाय। उस अग्नि को हम किस नंबर पर बोलें, इसका पहिले निर्णय करें। अगर पृथ्वी के बाद अग्नि बोलते हैं, पृथ्वी पर अग्नि धरते हैं तो पृथ्वी तो जल जायेगी। बोलने से पृथ्वी जलती नहीं है, पर क्रम में एक कल्पना है। मान लो वायु के बाद रख दें तो वहाँ वनस्पति साथ में रखी हुई है वनस्पति जल जायेगी। कहाँ धरें? यदि जल और वायु के बीच में आग धर दें तो इससे पृथ्वी भी बच गई और वनस्पति भी बच गई। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार का सही मेल हो जाने से वनस्पति का उत्पाद होता है। जितनी गर्मी चाहिए गर्मी न मिले, हवा चाहिए हवा न मिले, पानी चाहिए पानी न मिले तो वृक्ष कहाँ से आयें, फल कहाँ से आयें? झट बोल तो दिया पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, पर उस क्रम में लौकिक मर्म भी पड़ा हुआ है।
धर्माड्.गों के क्रमविन्यास के समर्थन में रत्नत्रय के क्रमविन्यास का दृष्टांत―रत्नत्रय तीन होते हैं― सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र। यदि और तरह से क्रम बोल दें तो उसमें सामंजस्य नहीं बैठता। इस क्रम का तो यह अर्थ हे कि सर्वप्रथम जीव को श्रद्धान चाहिए। जिसका श्रद्धान बिगड़ा है वह आगे चल ही नहीं सकता। श्रद्धान यदि यथार्थ है तो कुछ अपराध भी हो जाय वह भी क्षम्य हो सकता है, पर श्रद्धान बिगड़ा हो तो सब कुछ बिगड़ा है। श्रद्धान् से भ्रष्ट को भ्रष्ट कहा है। आगम में यह भी बताया है कि चारित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है। यद्यपि चारित्र से भ्रष्ट होना भी भ्रष्टता है लेकिन मोक्षमार्ग के प्रकरण में श्रद्धान् से भ्रष्ट होने वाले को भ्रष्ट कहा है अर्थात् वह अतिभ्रष्ट है। श्रद्धान्भ्रष्ट आत्मा धर्म का अधिकारी ही नहीं है। श्रद्धान् है और चारित्र में शिथिलता आ जाय तो वह श्रद्धान् पर हमला तो नहीं कर रहा है। सारी गाड़ी तो श्रद्धान् पर चलती है। श्रद्धान् से भ्रष्ट हो जाय तो फिर इसे बहुत काल तक कुयोनियों में भ्रमण करना पड़ता है। तो पहिले श्रद्धान् चाहिए। श्रद्धान् होने पर इसके ज्ञान की पूर्णता होती है। ज्ञान कितना ही हो, श्रद्धान् नहीं है तो वह न सम्यक् है, न परिपूर्ण होगा। उसके बाद सम्यक्चारित्र की पूर्णता होती है। तो यों ही समझिये कि धर्म के जो ये 10 अंग कहे हैं इनके क्रम में भी विशेषता है। इस क्रम में अब तक सत्य, संयम, तप, त्यागधर्म तक आये थे। जब आत्मा में जो विकारभाव हैं, सूक्ष्म भी विकार हैं उनका भी त्याग होने लगता है तब यह आत्मा आकिंचन्य बनता है।
धर्ममार्ग का अंत: उद्यम―इस आत्मा का बाह्य में कहीं कुछ नहीं है। यह अपने स्वरूपमात्र है। मैं आकिंचन्य हूँ, कुछ भी मेरा नहीं है, मेरा मात्र मैं हूँ। श्रद्धान् में तो यह बात पहिले से ही चलती है, पर प्रयोग के रूप में यह आकिंचन्य त्याग के बाद प्रकट हुआ है। जो पुरुष अपने आपको परवस्तुओं से न्यारा केवल ज्ञानमात्र निरखता है उसको धर्म मिलना, शांति मिलना यह बहुत आसान है। धर्म की बात जब मन में लाये तो इन सब बातों को भूला दे―मैं अमुक नाम का हूँ, अमुक जाति का हूँ, अमुक कुल का हूँ, अमुक मजहब का हूँ, अमुक वातावरण का हूँ, अमुक गाँव का हूँ, सब कुछ भूला दे, केवल अपने साथ एक जीव का नाता रखे―मैं जीव हूँ, ज्ञानमय पदार्थ हूँ, मुझे धर्म चाहिए क्योंकि वर्तमान परिस्थिति हमारी अधर्म की बन रही है और उस अधर्म के संताप से तपकर हम व्याकुल हो रहे हैं। इस संसारसंताप से हम जिसके प्रसाद से दूर हो सकते हैं, वह धर्म क्या है? उसकी चर्चा चल रही है।
प्रथम आवश्यक स्वरूपश्रद्धान―सर्वप्रथम तो यह जीव अपना सही श्रद्धान् बनाये, पदार्थ का सही-सही ज्ञान करे। पदार्थ सब स्वतंत्र हैं और उन पदार्थों में यह स्वरूप पड़ा हुआ है कि वह हर समय कुछ न कुछ अपनी अवस्था बनाता रहे। यह पदार्थ का स्वभाव ही है ऐसा। अपनी दशा बनाये बिना, अपने में परिवर्तन क्रिया किये बिना पदार्थ की सत्ता ही नहीं रह सकती। इससे हम बहुत-सी चिंताओं से और बहुत-से भ्रमों से मुक्त हो जाते हैं। कोई लोग तो इस ही में परेशान रहते हैं कि आखिर इस चीज को किसी ने बनाया कैसे? चीज बनाने की बात अभी दूर जाने दो, पहिले यह ही बताओ कि इसकी सत्ता कब से है? क्या कभी ऐसी भी कोई वस्तु आज तक बनी है कि जिसका सत्त्व तो किसी रूप में पहिले से ही नहीं और बन जाय? अगर ऐसा बन सकता है तो आप यहीं मिट्टी का सकौरा तैयार करके दिखा दें या कुछ भी चीज तैयार करके बता दें जो न हो परिणमाने वाले हैं और न रहे वह वस्तु, तो क्या उसका क्योंजी, आपके ख्याल में ही परिणमन बंद हो जायेगा? वह वस्तु तो बदलती रहेगी पुरानी होगी, नई शकल रखेगी। तो ये पदार्थ स्वयं सत् हैं, स्वयं बनते हैं, स्वयं बिगड़ते हैं, स्वयं ही रहा करते हैं। इसी प्रकार मैं भी हूँ, यह मैं भी स्वतंत्र होकर परिणमता रहता हूँ।
मेरा परिचय―मैं जैसा परिणाम करता हूँ वैसा बनता रहता हूँ, बनता हूँ बिगड़ता हूँ, फिर भी बना रहता हूँ। यह है हमारा परिचय। कोई पूछे भाई इनका परिचय बताओ यह कौन हैं? अच्छा सुनिये, इनका यह है परिचय, ये है अतएव प्रति समय बनते हैं, बिगड़ते हैं, और बने रहते हैं। और ये रहते कहाँ हैं? ये रहते हैं अपने सत्त्व में, अपने स्वरूप में, अपने प्रदेशों में रहा करते हैं। बड़ा अच्छा परिचय बता रहे हैं। और ये करते क्या हैं साहब? ये अपने भावों का परिणमन करते रहते हैं। कोई आकर पूछे जो आपके साथ आये हैं ये कौन हैं? तो बताइये बेधड़क, ये जीव असमानजातीय द्रव्यपर्याय, ये मायारूप हैं, यह मनुष्य पर्याय वाला जीव है, तो इसका परिचय यह हे कि ये बनते हैं, बिगड़ते हैं और बने रहते हैं। रहते कहाँ है? अपने स्वरूप में। करते क्या हैं? अपने भावों का परिणमन। तो सब पदार्थों का ऐसा ही परिचय है। यह स्वरूप है पदार्थ का। इससे स्वतंत्रता विदित होती है।
परमब्रह्मचर्य की सिद्धि का यत्न―जब तक सभी पदार्थों को हम आजाद रूप में न निरख सकें और अपने आपको भी हम आजाद के स्वरूप में न निरख सकें तब तक हम ब्रह्मचर्य की प्राप्ति कैसे कर सकते हैं? ब्रह्मचर्य मायने आत्मा में मग्न होना। तो यह स्वतंत्रता हमें इस आकिंचन्य से विदित होती है। सभी पदार्थ अकिंचन हैं अर्थात् उनमें उनका ही सत्त्व है। उनमें किसी परस्वरूप का कुछ नहीं है। मैं अकिंचन हूँ अर्थात् मुझमें मैं ही हूँ। मुझमें मेरे से अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। यों आकिंचन्य धर्म तक आये। इस प्रकार कषायों को दूर करके आत्मा में सच्चाई प्रकट की गयी और जब यह आत्मा सच बन गया तो इसके ज्ञानरूपी सूर्य की किरणें आत्मा में केंद्रित की जा सकी, उससे चैतन्य में तपन पैदा हुआ, उस तपन के कारण यह बोझ यह विकार यह सूक्ष्म विकार यह भी दूर होने लगा तब इस आत्मा में आकिंचन्य प्रकट हुआ। आकिंचन्य की सिद्धि होने के बाद ब्रह्मचर्य की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्य में समस्त तरंगे विश्रांत हैं, किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं है।
धर्मनाम में धर्मस्वरूप का प्रकाश―निरपेक्ष शुद्ध दशारूप धर्म जो पुरुष निभाते हैं, पालते हैं वे ही इस जग में पूज्य हैं और आनंदमय हैं। इस पवित्र धर्म का व्याख्यान उन्होंने किया है जिन्होंने इसका प्रयोग करके खुद अपने आपमें उतारा है, उनका नाम है जिन। जिनका अर्थ है जो कर्मों को जीते। देखिये धर्म का ठीक स्वरूप यदि समझ में आ जाय तो स्वरूप वही चित्त में रहेगा, नाम कुछ ले लिया जाय। जैसे एक नाम है जैनधर्म। तो ये जैन शब्द का अर्थ क्या रहा? जो कर्मों को जीते सो जिन अर्थात् महंत पुरुष परमात्मा। उन्होंने शासन बताया है, मार्ग बताया है तो उस मार्ग का नाम है जैनधर्म, वैष्णव धर्म। विष्णु का जो धर्म हैं वह वैष्णव धर्म है। विष्णु का अर्थ है व्यापक। जो तीनों लोक में फैला हो उसका नाम विष्णु है। आप कुछ अनुभव से तो सोचें, ऐसा कौनसा तत्त्व है जो समस्त लोक में फैला हुआ हो? वह ज्ञान तत्त्व है। अब आप आँखों से इस ओर देखें तो आपका ज्ञान इतने में फैल गया, ऐसा लगता है कि नहीं? तो फैलने की प्रकृति ज्ञान में है यह ऐसा-ऐसा निर्वाध फैलता है कि इसको कर्मरूपी आवरण की रुकावट नहीं हो तो यह ज्ञान समस्त लोक में फैल जाता है, और इतना ही नहीं, अलोक में भी फैल जाता है। अलोक में किसी द्रव्य की गति नहीं है। कोई पदार्थ आकाश के सिवाय वहाँ नहीं है लेकिन ज्ञान की ऐसी गति है कि लोक में भी फैले और अलोक में भी फैले। अर्थात् ज्ञान में लोक भी ज्ञेय है और अलोक भी ज्ञेय है। तो विष्णु तो ज्ञान है, उस ज्ञान की जो वृत्ति है उसका नाम है वैष्णव धर्म। ज्ञान संबंधित विकास का नाम है वैष्णव धर्म। सनातनधर्म―सनातन का अर्थ है सीमा रहित अर्थात् अनादि से चला आया हो, अनंत काल तक रहे। सनातन क्या चीज है? यह आत्मधर्म। समस्त नाम आत्मधर्म के हैं। आर्य मायने श्रेष्ठ। वह श्रेष्ठ धर्म क्या? आत्मधर्म। तो जिन्होंने धर्म का स्वरूप जाना है वे लोक में प्रसिद्ध धर्म के विशेषण, धर्म के नाम को भी उस स्वरूप में लगा सकते हैं।
अपना कर्तव्य और सिद्धि―भैया ! अपना कर्तव्य तो यह है कि अपने में एक आत्मा का नाता ही लगायें केवल !और लोक में जो अनेक बातें पर्यायों की फैल गयी हैं उन पर्यायों का पक्ष न रखें। मुझे शांत होना है सुखी होना है और मेरे लिए धर्म चाहिए। वह धर्म इस दशलक्षण अंगों की पद्धति से प्राप्त होता है। इस धर्म का अंशमात्र भी सेवन करे कोई तो वह योगीश्वर मोक्षसुख का अनुभव करता है, अंश के सेवन से नहीं, किंतु जो अंशमात्र भी सेवन करेगा उसके समग्र धर्म आ ही जायेगा। यह आत्मा साक्षात् धर्ममूर्ति है। आत्मा का जो स्वभाव है उसकी ही तो मूर्ति है। हमें न तो धर्म कहीं बाहर से लाना है न ज्ञान कहीं बाहर से लाना है, न आनंद कहीं बाहर से लाना है, सिर्फ बाहर मेरा धर्म है, बाहर मेरा ज्ञान है, बाहर मेरा आनंद है, ऐसा भ्रम बनाकर जो दृष्टि बाहर ही बाहर भ्रमा करती है उससे बड़ा कष्ट होता है। जरा अपनी ओर का झुकाव तो करें, हमारा ज्ञान, हमारा धर्म, हमारा आनंद स्वयं अपने आपमें मिल जायेगा और ये जो ममता और भ्रांतियों की विपदाएँ बनी हुई हैं ये विपदायें समाप्त हो जायेंगी। ग्रहण करने योग्य सारभूत बात यह है कि अपने को ज्ञानस्वरूप पदार्थ मानें और अपने स्वरूप को धर्म समझें और उस स्वभाव में लीन होने का यत्न करें, यही धर्मपालन है।