वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2031
From जैनकोष
मृगेंद्रविष्टरारूढं मारमातंगघातकम् ।
इंदुत्रयसमोद्दामच्छत्रत्रयविराजितम् ।।2031।।
प्रभु का मूलरूप―यह प्रभु सिंहासन पर आरूढ़ हैं । प्रभु का ध्यान करने के लिए कुछ आकार प्रकार की कल्पनाएँ आ जाना स्वाभाविक बात है । प्रभु को रूपस्थध्यान में लाने के लिये हम कहीं चित्त ले जायें? तो समवशरण में चलिये, उसके बीच गंधकुटी हैं, उस पर सिंहासन है । उस सिंहासन पर विराजमान हैं ये प्रभु । सिंहासन नाम है श्रेष्ठ आसन का । यहाँ सिंह का अर्थ उस हिंसक महापातकी सिंह से नहीं लेना है, किंतु सिंह का अर्थ श्रेष्ठ से लेना है । अब वह श्रेष्ठ आसन कैसा है? चमकती हुई मणिरत्नों से खचित बड़े सुंदर आकार का वह श्रेष्ठ आसन है उसे सिंहासन बोलते हैं, उस पर आरूढ़ हैं, यों निरखो प्रभु को । वे प्रभु कामहस्ती के घात करने वाले हैं । अथवा कामरूप चांडाल के वे घातक हैं, पूर्ण निष्काम हैं, और जिनके ऊपर चंद्रमा के समान तीन छत्र विराज रहे, जो दुनिया में यह भासित कर रहे हैं कि ये प्रभु तीन लोक के अधिपति हैं । यहाँ सोचा जा रहा है प्रभु का स्वरूप । कहीं धोती लंगोटी पहिने हो, चद्दर लटकाये हुए यहाँ वहाँ आता जाता हो, घर-घर फिरता हो, भक्तों से कुछ पूछता हो, यह स्वरूप प्रभु का नहीं है । आकाश में सिंहासन पर आरूढ़ हैं, तीन छत्र जिनके सिर पर शोभायमान हो रहे हैं, जो सर्व से विरक्त निष्काम हैं । फिर भी जो कोई लोग उन प्रभु की भक्ति में पढ़ते हैं वे सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं और जो उनकी भक्ति से विमुख रहते हैं वे इन दुःखों में ही पड़े रहते हैं । इस प्रकार प्रभु के स्वरूप का यह ध्यान कर रहा है ।