वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2081
From जैनकोष
निष्कलस्य विशुद्धस्य निष्पन्नस्य जगद्गुरो: ।
चिदानंदमयस्योच्चै: कथं स्यात्पुरुषाकृति: ।।2081।।
निष्कल परमात्मा की पुरुषाकारता की संभवता पर प्रश्न―सिद्धस्वरूप को रुचि से सुनने वाला और उससे अपना ध्यान विशुद्ध करने वाला कोई श्रोता एक विशद आशय बनाने के लिए एक प्रश्न रख रहा है कि ये भगवान देहरहित हैं, निष्फल हैं, विशुद्ध हैं, निष्पन्न हैं, चिदानंद स्वरूप हैं, ऐसे आत्मा का आकार पुरुष के समान कैसे बनाया जा रहा है? यह आत्मा फैल भी सकता था । सारे लोक में फैल जाय या सिकुड़ करके बटबीज की तरह छोटा बन जाय, अथवा कुछ भी हो । एक ढंग से पुरुषाकार बन जाना, बना रहना, यह कैसे संभव है? इस प्रश्न का समाधान करते हैं―