वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2093
From जैनकोष
स्फोटयत्याशु निष्कंपो यथा दीपो घनं तम: ।
तथा कर्मकलंकौघं मुनेर्ध्यानं सुनिश्चलम् ।।2093।।
निर्मल सुनिश्चल ध्यान से कर्मो का विस्फोटन―जैसे दीपक जो कि निष्कंप हो, ठीक प्रज्वलित हो, हिलता डुलता न हो, वह दीपक जैसे बड़े घने अंधकार को शीघ्र ही नष्ट कर देता है इसी प्रकार मुनि का सुनिश्चल धर्मध्यान कर्मकलंकों के मल को शीघ्र ही नष्ट कर देता है ।प्रकाश होते ही अंधकार किस तरह नष्ट होता है जैसे छिन्न भिन्न कर के तोड़ दिया हो, पता न पड़े, इस तरह अंधकार दूर होता है ऐसे ही जब मुनि का निश्चल धर्मध्यान होता है तो सारे कर्म उसके फूट जाते हैं । लोगों पर जब कोई कष्ट आता है, जब कोई इष्ट वियोग होता है तो कहते हैं कि देखो―इसका भाग्य फूट गया । अरे जिनका भाग्य फूट जाता है उनकी तो पूजा उपासना की जाती है । बड़े-बड़े समारोह मनाये जाते हैं । भाग्य फूट गया है सिद्ध भगवान का, अष्टकर्म नष्ट हो गए, कर्महीन हो गए । तो यहाँ उसी फूटने की बात कही जा रही है कि जब मन सुनिश्चल हो जाता है, ध्यान सही मिल जाता है तो ये कर्म फूट जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं ।
प्रयोग में यथार्थता―अष्टाह्निका के दिनों में जब अरहदास सेठ अपनी 8 सेठानियों के सहित अपने घर में बैठे हुए धर्मचर्चा कर रहे थे, उसी दिन वहाँ का राजा और मंत्री नगर घूमने गए । उस धर्मचर्चा में उस राजा के प्रति भी कुछ प्रसंग था । राजा छिपकर वह प्रसंग सुनने लगा । अरहदास सेठ जो भी धर्मचर्चा करें उसे 7 सेठानियां तो कहें―बिल्कुल सच, मगर सबसे छोटी सेठानी कहे―बिल्कुल झूठ । कुछ प्रसंग उस राजा संबंधी भी था, सभी सेठानियों ने अपनी-अपनी सम्यक्त्व की कथा की तो सबने कहा बिल्कुल सच, पर वह छोटी सेठानी कहे―बिल्कुल झूठ । राजा सोचता है कि देखो ये सभी तो सच कह रही हैं पर एक सेठानी कहती है बिल्कुल झूठ, तो इसका हमें ब्योरा जानना चाहिए । तो दूसरे दिन राजा ने बड़े आदर से सेठ को व सभी सेठानियों को अपने यहाँ बुलाया और रात्रि में जो चर्चा चल रही थी उसके संबंध में पूछा । देखो―रात्रि को जो तुम लोगों में चर्चा चल रही थी उसमें से कुछ चर्चा हमारे संबंध में भी थी, हम भी जानते हैं कथा सच है । उस पर सभी सेठानियां तो कहती थीं सच और छोटी सेठानी कहती थी―बिल्कुल झूठ, तो इसका ब्योरा क्या है सो हम जानना चाहते हैं? छोटी सेठानी ने झट सारे आभूषण उतार दिए, एक साड़ी मात्र पहिनकर बिना कुछ बोले चाले ही जंगल की ओर चल पड़ी । तब जनता ने कह दिया कि वह सब तो झूठ था, सच तो वास्तव में यह है । तो वास्तव में आत्मा को शांति कैसे प्राप्त होती है, कौनसा उत्कृष्ट पद है, कैसे पवित्रता जगती है, कैसा पावन यह आत्मा है, ये सभी बातें धर्म का अनुभव करने से ही प्राप्त होती हैं, न कि केवल बातें करने से । काम तो करने से ही बनता है ।
धैर्य और त्याग का लाभ―कभी देखा होगा कि जैसे-जब दो व्यक्ति परस्पर में लड़ जाते हैं तो उनमें गम खाने वाला अधिक लाभ में रहता है और उससे विरोध बढ़ाने वाला व्यक्ति हानि में रहता है, ऐसे ही जो इन परद्रव्यों में मोहित हो जाय, उनको पाकर ही संतुष्ट हो जाय तो वह बहुत बड़े लाभ से वंचित रह जाता है । बल्कि वह दुर्गति का पात्र होता है ।तो अपना कर्तव्य है कि इन पाये हुए सुख के साधनों में मग्न न हों, इनको अपना सर्वस्व न समझें, और धर्म की अगर सही बात बन जाय तो इन सांसारिक सुखों से भी लोकोत्तर, जिसकी कोई उपमा नहीं है ऐसा निर्वाण सुख प्राप्त होगा । सदा के लिए अनंत आनंद होगा । थोड़ीसी चीज दिखाकर ये कर्म इस जीव की सर्व समृद्धि सर्व जायदाद कोर्ट कर लेते हैं । अपना अड्डा जमा लेते हैं ।
परवस्तु के लोभ में अनंत निधि की हानि पर दृष्टांत―एक सेठ गुजर गया, उसका दो तीन साल का बच्चा था । उस सेठ की 8-10 लाख रुपये की जायदाद को सरकार ने कोर्ट कर ली । उसकी एवज में 500) मासिक बाँध दिया । जब वह बच्चा कुछ समझदार हुआ तो वह सरकार के बड़े गुण गावे―वाह, यह सरकार तो बड़ी दयालु है, देखो घर बैठे हमें 500) रु. महीना दे रही है । जब वह और बड़ा हुआ करीब 20 वर्ष का तो उसे पता पड़ा कि करीब 10 लाख की जायदाद सरकार ने कोर्ट कर ली है और उसके एवज में ये 500) रु0 महीने दे रही है, यदि वह उसी 500) रु0 महीने में लुभा जाये तो वह 10 लाख रुपये की जायदाद पा सकेगा क्या? नहीं पा सकता । तो उसने झट सरकार को नोटिस दे दिया कि हमारी 10 लाख रुपये की जायदाद सरकार ने कोर्ट कर रखी है, मैं समर्थ हो गया हूँ, मुझे यह 500) रु0 महीना न चाहिए, मेरी 10 लाख की जायदाद मुझे दी जाय । लो पा जाता है वह अपनी सारी जायदाद । यों ही आत्मा के अनंत आनंद को इन कर्मों ने कोर्ट कर लिया है और उसके एवज में यह स्त्री सुख, थोड़ा घर का सुख, थोड़ा वैभव का सुख दे दिया है, उन्हीं में मस्त हो रहे हैं ये अज्ञानी जन । जिनको यह पता ही नहीं है कि हमारी अनंत आनंद की निधि इस कर्म सरकार ने जप्त कर ली है, वे तो उन थोड़े से सांसारिक सुखों को पाकर बड़ा हर्ष मानते हैं और इस कर्म सरकार के गुण गाते हैं । वाह बड़ा पुण्य आड़े आ रहा है, भारी समृद्धियां हैं, बड़ा सुख है, और जब यह ज्ञान बन जाय, सम्यग्दृष्टि हो, पता पड़े कि ओह ! मेरे इस अनंत आनंद की निधि को तो इस कर्म सरकार ने कोर्ट कर लिया है और बदले में यह थोड़ासा पुण्य साधन दे दिया है, तो झट वह पुण्यसरकार को नोटिस दे देता है कि मुझे नहीं चाहिए ये थोड़े से सांसारिक सुख, मेरी तो अनंत आनंद की निधि जो इस कर्म सरकार ने जप्त कर ली है वह मुझे दी जाय । बस उसे अनंत आनंद की निधि प्राप्त हो जाती है ।
वैराग्य और ज्ञान से अम्युदय―बात यहाँ यह चल रही थी कि धर्म का अनुभव बने, भोगो से उपेक्षा हो, आत्मा की बात रुचिकर हो, और ऐसी लगन बने कि एक ही मात्र हमारा काम है, एक ही लक्ष्य है निज सहज स्वभाव, कारणपरमात्मतत्व । अपने आपका वह अंत:स्वरूप, बस वह मेरे ज्ञान में रहे, प्रतीति में रहे तो मैं तो यह हूँ । बस इसके मुकाबले तीनों लोक की संपदा भी आये तो भी उसे जीर्ण तृण की नाई समझिये । इतना बड़ा साहस स्पष्ट बोध ज्ञानी जीव के होता है और तभी वह पार पा लेता है । हम आपको भी यही लगना चाहिए । ऐसा ही यत्न करना उचित है कि जिससे हम अपने आपके स्वरूप के निकट अधिक बस सकें ।