वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2097
From जैनकोष
न पश्यति तदा किंचिन्न शृणोति न जिघ्रति ।
स्पृष्टं किंचिन्न जानाति साक्षान्निर्वृत्तलेपवत् ।।2097।।
अध्यात्मयोगी की बाह्यनिर्व्यापारता―संसार शरीर और भोगों से विरक्त रहने वाले और इस अंत: बसे हुए शुद्ध सहज ज्ञानस्वभाव का आलंबन ही जिनका शरण है ऐसी धुनवाले योगी जब अपने आपकी सुध में उपयोग रखते हैं, उस समय बाहर में कहाँ क्या हो रहा है उस पर उनकी दृष्टि नहीं है । उस ध्यान के समय उनकी मुद्रा मूर्तिवत् है, चित्रवत्, हिलती डुलती नहीं है । इस प्रकार ये योगी मन वचन काय से निश्चल होते हैं । वे न कुछ सुनते, न कुछ बोलते, न कुछ निरखते, कहाँ कैसी गंध है उस पर भी उनका उपयोग नहीं है । कोई हुए तो उसे भी वे नहीं जान रहे । संसार में सारभूत पुरुषार्थ तो यही है कि बाहर से उपयोग हटकर अपने आपके उस ज्ञानप्रकाश में उपयोग रहे ।
ध्याता की अध्यात्म की धुनि―मैं यह हूँ आत्मा का जानने वाला, ऐसा ध्यान सुगम है, और इसकी बात हजारों बार भी आये तो अध्यात्म प्रेमियों को अपूर्वसी नईसी लगती है । जैसे लोग रोज भोजन करते हैं तो रोज-रोज के भोजन में वे अघाते नहीं हैं, रोज-रोज नयासा लगता है क्योंकि उस तरफ रुचि है, उसकी उन लोगों ने आवश्यकता समझी है, तो ज्ञानी पुरुषों ने आत्मा के ज्ञानस्वरूप की उपासना करने की आवश्यकता इतनी अधिक समझी है कि यह निरंतर होता रहे । यह काम पूरा होने का नहीं है । वे तो इस ज्ञानस्वभाव की उपासना करना ही अपना प्रमुख कर्तव्य समझते हैं । ज्ञानस्वरूप की उपासना कर ली तो समझो सब कुछ कर लिया, अब कुछ भी करने को नहीं रहा । यों निरंतर आत्मस्वरूप की उपासना का ही काम उनके पड़ा हुआ है, ऐसा उन ज्ञानी पुरुषों ने समझा है । तो उसकी धुन में जो आये जीव न तो उनका सफल है । जो कोई सत्य का आग्रह करने वाला योगी है उसी के शुक्लध्यान हुआ करता है । उसी का वर्णन अगले प्रकरण में किया जायगा ।