वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2100
From जैनकोष
अतिक्रम्य शरीरादिसंगानात्मन्यवस्थित: ।
नैवाक्षमनसार्योगं करोत्येकाग्रताश्रित: ।।2100।।
धर्म्यध्याता के इंद्रियविषयो में मन के संयोग की अप्रवृत्ति―धर्म संबंधी ध्यान करनेवाला पुरुष सांसारिक परिग्रह छोड़कर आत्मा में अवस्थित होते हुए एकाग्रता को धारण करके इंद्रिय और मन का संयोग नहीं करता है अर्थात् इंद्रिय से जिस पदार्थ का ग्रहण होता है उसका फिर मन से संयोग नहीं करता । यहाँ इस बात पर प्रकाश मिलता है कि इंद्रिय तो अपना काम करने में समर्थ हैं, सामने कुछ आ गया तो आँखों से दिख ही जायगा, कानों से बाहर के शब्द सुन ही पड़ेंगे, रसना में रस का स्पर्श होने से रस का अनुभव हो ही जायगा, नासिका से गंध का स्पर्श होने से गंध का भी अनुभव हो जायगा, किसी पदार्थ का स्पर्श होने से स्पर्शन इंद्रिय द्वारा स्पर्श का भी अवगम हो जायगा । इन पंचेंद्रियों द्वारा विषय को ग्रहण करने पर भी मन उन्हें न ग्रहण करे ऐसी बात यह ज्ञानी पुरुष कर सकता है । वह तो मन को केवल अपने स्वरूप में स्थिर करता है । इरा से यह शिक्षा मिली कि जो लोग विवशता का अनुभव करते हैं―पदार्थ ग्रहण में आये तो मन लग ही जाता है, वे समझ लें कि ऐसा भी ज्ञानबल से हो जाता है कि मन नहीं फंसता है ।
गृहीत इंद्रियविषयों में मन के असंयोग का उदाहरण―इंद्रिय द्वारा ग्रहण में आये और मन न फंसे, इसका एक उदाहरण तो यह है कि साधुजन आहार करते हैं तो उन्हें क्या खट्टामीठा, नमकीन आदि का स्वाद नहीं आता? आता है, किंतु उनकी उस चीज में आसक्ति नहीं है । यदि उन्हें खारा मीठा का पता न पड़े तो त्यागी हुई वस्तु के खाने का अंतराय कैसे पा लें? साधुजन आहार करते हुए भी निराहार माने जाते हैं इसी कारण कि उन्हें आसक्ति नहीं है ।जब कि गृहस्थ पुरुषों को मन में बहुत चाह रहती है कि मैं चाट पकौड़ी खाऊँ अथवा कोई अच्छी चीज बाजार में जाकर खाऊँ या घर पर ही बनवाकर खाऊँ, तो चाहे उन्हें ये चीजें किसी कारणवश खाने को उन गृहस्थों को मिल न सकें, पर वे निराहार नहीं कहला सकते। कारण कि उस चीज के प्रति उनके आसक्ति है, उनका ध्यान उस ओर बना रहता है तो वे साधु आहार ग्रहण करते हुए भी निराहार हैं । इंद्रिय के द्वारा कोई चीज ग्रहण में आ जाय तिस पर भी जो ध्यानी पुरष हैं, ध्यानी जन हैं वे उसे मन से ग्रहण नहीं करते ।