वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2133
From जैनकोष
पृथकवं तत्र नानात्वं वितर्क: श्रुतमुच्यते ।
अर्थव्यंजनयोगानां वीचार: संक्रम: स्मृतः ।।2133।।
पृथक्त्ववितर्कवीचार का स्वरूप―जब योगी ध्यानी मुनि के विशिष्ट समाधि के बल से राग प्रक्रिया रुक जाती है तब उस आत्मा में ज्ञान और ध्यान की कैसी स्थिति चलती है, उससमय का यहाँ वर्णन है । जिस योगी ने अपने जीवन का बहुभाग तत्वनिर्णय में बताया है और तत्वनिर्णय करके जो उपादेय निज कारणसमयसार अथवा शुद्ध स्वभाव की उपासना में बिताया है, धर्मध्यान में बहुभाग समय बिताने पर जब रागप्रकृति रुक जाती है और सप्तम गुणस्थान को पार कर के जब श्रेणी में प्रवेश होता है उस समय उस ध्यानी मुनि के राग व्यवहार के बिना उसके ज्ञान की किस-किस प्रकार से स्थिति बनती है, उसका वर्णन है । तो सर्वप्रथम ध्यान चल तो रहा है शुक्लध्यान अर्थात् रागद्वेषरहित, किंतु पूर्व में ऐसा संस्कार था जिससे ज्ञान विषयों को बदल-बदलकर जानता रहता था । किसी एक पदार्थपर ध्यान में चित्त जमा ही नहीं रहा करता था । उस संस्कार से कहो अथवा कुछ अंशों में अभी रागांश है जिसका कि प्रक्रियारूप में तो उदय नहीं है, काम नहीं है फिर भी कुछ उदय है, इस कारण ज्ञप्ति परिवर्तन होता रहता है । वहाँ नाना पदार्थों का ज्ञान चलता है, श्रुतज्ञान के आलंबन से चलता है, ज्ञान में पदार्थ बदलता रहता है और जिन शब्दों से ध्यान किया जा रहा है यद्यपि वे शब्द प्रकट रूप में नहीं हैं, भीतर ही अंतर्जल्प को लिए हुए हैं, तो जिन शब्दों से ध्यान जग रहा है वे शब्द भी बदलते जाते हैं और जिन योगों मे रहकर ध्यान चलता रहा है वह योग भी बदल जाता है । मन का योग, वचन का योग, काय का योग ऐसी अस्थिरता तो है किंतु राग भाव करे और किसी ओर हर्ष विषाद का परिणाम आये, विकल्प आये, यह बात रंचमात्र भी नहीं होती । ऐसा विशिष्ट पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान है ।