वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2208
From जैनकोष
इति जिनपतिसूत्रात् सारमुद्घृत्य किंचित्,
स्वमति विभव योग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम् ।
विबुधमुनिमनीषांभोधिचंद्रायमाणं,
चरतु भुवि विभूत्यै यावदद्रींद्रचंद्र: ।।2208।।
ध्यानशास्त्र का जयवाद―यह ग्रंथ ध्यानशास्त्र है । जिनेंद्रदेव से प्रणीत जो शास्त्र सूत्र हैं, द्वादशांगमय वचन हैं उन सूत्रराजों से सार को कुछ ग्रहण करके अपनी बुद्धि वैभव की योग्यता के अनुसार प्रणीत हुआ है । सो यह तब तक प्रवर्तमान रहे जब तक पर्वतराज मेरु और चंद्र हैं । मेरु चंद्र आदिक अकृत्रिम पदार्थ अनादि से हैं और अनंतकाल तक रहेंगे । तो यह ध्यानशास्त्र भी सदा प्रवर्ते, जिस सारतत्व की उपासना से जीव शांतिमार्ग पाते रहे । यह ध्यानशास्त्र विद्वान मुनि जनों की बुद्धि रूप समुद्र को बढ़ाने के लिये चंद्रमा के समान है । जिस प्रकार पूर्णचंद के उदय का निमित्त पाकर समुद्र जल वृद्धिगत हो जाता है, इसी प्रकार इस ध्यानशास्त्र में वर्णित उपायों का मनन प्रयोग करके विवेकी मुनि जनों का ज्ञान वृद्धिगत होता है, विकसित होता है । ऐसा यह ध्यानशास्त्र चिरकाल तक जयवंत प्रवर्तो ।