वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 224
From जैनकोष
निष्पादित: स केनापि नैव नैवोद्धतस्तथा।
न भग्न: किंत्वनाधारो गगने स स्वयं स्थित:।।224।।
लोक की अनादिनिधनता―अनेक पुरुष इस लोक की रचना के संबंध में बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ लगाते हैं। कोई कहते हैं कि ईश्वर ने बनाया, कोई कहते हैं कि यहाँ पहले समुद्र ही था, सूर्य ही था, फिर वह पानी हट गया, पृथ्वी पैदा हुई, फिर उसी समुद्र के जो जानवर थे वे ही विकास को प्राप्त होकर पक्षी बने, पशु बने फिर मनुष्य हो गए। कोई कुछ कहते कोई कुछ, पर यथार्थ बात यह है कि यह लोक किसी के द्वारा बनाया गया है ही नहीं, यह तो अनादि निधन है, चला आया है। कल्पना करो आप लोगों का कोई पिता तो है ही, पिता बिना तो आप पैदा नहीं हुए, उस पिता का भी कोई पिता होगा यों ही लगाते जावो कोई पिता ऐसा न मिलेगा जो बिना पिता का हो। तो पिता की परंपरा जब सोचते हैं तो मालूम होता है कि यह प्रारंभ से ऐसा ही चला आया है। किसे बतायें कि सबसे पहिले पिता कौन था जिसके बाप ही न हुआ हो। आज जो वृक्ष खड़ा है यह किसी फल से ही तो पैदा हुआ और वह फल वृक्ष से वह वृक्ष फल से। तो जैसे वृक्ष और बीज की यह परंपरा अनादि से है ऐसे ही यह समस्त लोक समस्त पदार्थ अनादि से बने हुए हैं। दूसरी बात यह सोचो कि कोई पदार्थ बनता है तो कुछ था पहिले उससे ही तो बना। घड़ा बना तो पहिले मिट्टी तो थी। कुछ भी बीज बने तो असत् से नहीं बनती। कुछ सत्त्व हो उससे बनती है तो नया सत् कभी उत्पन्न नहीं होता। जो है ही नहीं कुछ और हो जाय कुछ ऐसा तो होता ही नहीं है। तब जितने जो कुछ भी पदार्थ हैं, हम आपको दिखते हैं व सत् हैं और अपने आप सत् हैं, अनादि काल से वे सत् हैं और पदार्थ के समूह का ही नाम लोक है, जगह का नाम लोक नहीं। जगह भी एक पदार्थ है। पर पदार्थों के समूह का नाम लोक हैं, इस लोक को किसी ने उत्पन्न नहीं किया, वह तो अनादि निधन है।
तीन वातवलयों के आधार पर लोक की स्थिरता―कोई पुरुष ऐसा मानते हैं कि इसे बनाया तो किसी ने नहीं, किंतु इसको कोई थामे हुए है। कोई मानते कि यह पृथ्वी कीली पर थमी है, कोई कहते कि यह पृथ्वी शेषनाग पर थमी है परंतु थमी किसी पर नहीं है। इस पृथ्वी के चारों ओर जो तीन प्रकार की हवा है उस हवा पर यह सब सधा हुआ है। एक ठेले में ढाई तीन सौ मन का भार लादा जाता है, और वह ठेला रखा है पहियों पर। पहियों में है क्या? हवा। तो हवा में कितनी शक्ति है जरा अंदाज तो करो, कहने को तो यों लगता है कि हवा है, हवा में क्या शक्ति है? और देख लो मोटर ठेलों के पहियों में हवा भरी रहती है तो बहुत बोझा ढोने पर भी वह पहिया नरम नहीं होते। तो हवा में कितना ही भार झेलने की सामर्थ्य है, फिर यह जीन लोक के भार को झेलने वाली सामान्य हवा नहीं है, यह हजारों धनुष से मोटी हवा है। उन हवा पर यह लोक सधा हुआ है, इसे किसी ने भी रख नहीं रखा है। कोई लोग मानते हैं कि यह लोक कछुवे की पीठ पर है, जो कच्छप अवतार मानते हैं वे मानते है कि कछुवा पर यह पृथ्वी सधी है। उनको यह जँचा कि कछुवे की पीठ बड़ी कड़ी होती है उस पर कितना ही वज़न रख लो। कछुवा अपनी चोंच अगर भीतर डाल ले तो फिर कितने ही डंडे मारो उसको कुछ असर नहीं होता। उसका जो गला निकला रहता है वह बहुत कोमल होता है, उसमें जरा सा भी घात हो जाय तो मरने की नौबत है। तो कछुवे की पीठ बहुत दृढ़ होती है। पुराने समय में लोग कछुवे की पीठ की ढाल बनाते थे जिस पर तलवार चले तो असर नहीं होता। सोचा कि ऐसा कौनसा जानवर है जो अपनी पीठ पर इतनी बड़ी जमीन लादे हुए है, कई लोग मानते हैं कि कछुवे की पीठ पर यह लोक सधा है। कुछ लोग मानते हैं कि यह लोक शेषनाग के फन पर ठहरा है, पर यह उनका कोरा भ्रम है, यह तो स्वयं सत् है, किसी जानवर पर नहीं सधा है। तीन तरह की हवा है उस पर सधा हुआ है और इसका आधार कुछ है ही नहीं, ऐसी तर्कणा क्यों करते हो कि बिना आधार के यह लोक आकाश में कैसे ठहरेगा, भग्न हो जायेगा। भग्न नहीं होता, निराधार है, वह तो आकाश में वातवलयों के आधार पर स्वयं अपने आप ठहरा हुआ है, यह लोक।
आत्मज्ञान बिना लोक में भ्रमण व शांति का अभाव―इस लोक में यह जीव अपने आत्मा का ज्ञान न पाने से अब तक भ्रमण करता आया है। इस लोक में कितने प्रकार के शरीर हैं, उनको गिनाया नहीं जा सकता। असंख्याते प्रकार के शरीर हैं, उन सब शरीर में यह जीव जन्म ले चुका है। और अज्ञानवश भ्रमता चला आया है। इस जीव से सदा के लिए शरीर और ये कर्म छूट जायें इसका कोई उपाय है मूल में तो वह भेदविज्ञान है। हम अपने को सबसे जुदा समझ लें तो ये शरीर और कर्म जुदे हो जायेंगे। हम तो करें परद्रव्यों से प्रीति और चाहें कि इनसे छुटकारा हो जाय तो कैसे छुटकारा हो जायेगा? यह लोक है, अनेक पदार्थों का समागम है यह सब एक मेले की तरह है। आज आये कल चले जायेंगे, सदा कोई ठहरने का नहीं है, यह बड़ा विवेक है जो ऐसा मानता रहे कि मेरा तो देह भी नहीं, मेरा तो मात्र मैं आत्मा हूँ। इस मान्यता में मरण का भी भय नहीं रहता। कभी ऐसी स्थिति आ जाय कि जिसमें ऐसा लगे कि अब तो हमारा मरण होने वाला है। अरे तो मरण होने का नाम क्या है? इस देह को छोड़कर चले गए, देह को छोड़कर चले जायें तो इसमें हमारा नुकसान क्या हुआ? चले गए बल्कि देह पुराना हो गया था, बड़े दु:ख का कारण था, अब इसे छोड़कर जा रहे हैं, अब कोई नया देह मिलेगा तो इसमें नुकसान क्या हुआ? यह सब घर वैभव छूटा जा रहा है, बहुत चाव से दुमंजिला तिमंजिला मकान बनवाया, बड़े ठाठ का रहन-सहन था, अब एकदम यहाँ से जाना पड़ रहा है। अरे जाना पड़ रहा तो क्या हानि है? समता से जाय तो यहाँ से भी बढ़िया कीमती मकान वैभव मिलेगा और मिले या न मिले, यहाँ भी क्या मिला था, केवल मिलने की कल्पना ही तो कर रहे थे। यह तो जैसा अकेला था वैसा ही है, वही अकेलापन रहेगा। तो अपने को सबसे निराला अकेला ज्ञानस्वरूप समझने से जीव को शांति मिलती है, आनंद मिलता है और वास्तविक बात भी यही है, लो छूटा तो जा ही रहा है यह सब, पर छूटा जा रहा है तो छूटने दो, जब तक पास में है तब तक भी मेरा नहीं है, मेरा तो मात्र मैं आत्मा हूँ ऐसी भावना बने तो समझो कि हमारी लोकभावना सफल है।
लोकभावना से स्फुट शिक्षायें―इस भावना में हम कोई शिक्षा ग्रहण करें तो प्रथम तो यह कि इस लोक में कोई प्रदेश ऐसा नहीं बचा जहाँ अनंत बार जन्म–मरण न हुआ हो, फिर क्षेत्र का क्या लालच करना? दूसरी बात यह समझिये कि यहाँ जो कुछ भी समागम मिला है यह समागम तो अनेक बार मिल चुका था और जो भी वैभव मिला है इसे तो अनेक बार भोग चुके थे। यह कोई अनूठी संपदा नहीं है और फिर सदा रहने वाले भी नहीं, क्षणिक आये हैं, विघट जायेंगे। तो जो क्षणिक में विघट जाय ऐसी संपदा में ममता करने से क्या लाभ है? बड़ा विवेक चाहिए, ज्ञानी पुरुष के बहुत बड़ा साहस होता है। जगत चाहे किसी रूप प्रवर्ते किंतु ज्ञानी जीव अपने साहस को नहीं छोड़ता, ज्ञानी में भय उत्पन्न नहीं होता, जो होता है मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहता है। तो यह शिक्षा लेना है लोकभावना भाकर कि हम संयोग के काल में भी पदार्थों में राग न करें, यथार्थ बात जानते रहें कि मेरा तो यहाँ कुछ भी नहीं है। मेरा ही स्वरूप मेरा है जो मुझसे कभी अलग न हो। अब लेते जाइये, यह वैभव तो प्रकट अलग हो जाता है, अलग भी दिख रहा है। यह देह भी अलग होगा, ऐसा हमने अनेकों का देखा है। अनेक लोग मर गए, पर यह देह साथ में कभी नहीं गया। लोग इस देह को देखकर सजीव अवस्था में प्रेम और मोह करते हैं, जीव के निकल जाने पर इस देह को निष्ठुर होकर जला डालते हैं। उसमें निष्ठुरता की क्या बात, उसे समझ रहे हैं कि यह तो निर्जीव है, तो देह भी मेरा नहीं, वैभव मेरा नहीं और कर्म मेरे नहीं, कामादिक विकार मेरे नहीं, मैं तो केवल एक ज्ञानानंदस्वरूप हूँ ऐसी दृष्टि आये तो हमारी बारह भावनाएँ सफल हैं।
लोकस्वरूप का पुन: स्मरण―लोकभावना में लोक का स्वरूप दिखाया जा रहा है, न इसे किसी ने बनाया, न किसी ने अपने कंधे पर धरा और न यह कभी भग्न हुआ न गिरा न मिटा, आधार भी कुछ न था, पर हाँ आधार सबसे बड़ा है तो तीन प्रकार के वातवलयों का है। उन वातवलयों के आधार पर यह लोक टिका हुआ है जहाँ पर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल―ये 6 प्रकार के द्रव्य रहते हैं, ऐसी लोक की भावना करके लोक का विचार करके हम ऐसा प्रतीति में लेते रहें कि इस लोक में कहीं भी कुछ भी सार वस्तु नहीं है। मेरा सार तो मुझमें ही है, इसलिए इस ही ज्ञानानंदस्वरूप की भावना करना चाहिए।