वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 236
From जैनकोष
मार्गमासाद्य केचिच्च सम्यग्र्रत्नत्रयात्मकम्।
त्यजंति गुरुमिथ्यात्वविषयव्यामूढ़चेतस:।।236।।
मिथ्यात्वविषव्यामोह से सन्मार्ग का परिहार―कोई-कोई पुरुष भली प्रकार रत्नत्रय मार्ग को भी पाकर तीव्र मिथ्यात्व विषय व्यामोही हुए सन्मार्ग को छोड़ देते हैं। इससे बढकर और क्या उदाहरण होगा कि कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो, साधु हो, उपशम श्रेणी में चढ़कर 11 वें गुणस्थान में पहुँच गया, फिर वहाँ से गिर जाय, सम्यक्त्व भी छूट जाय और स्थावरों में जन्म लेना पड़े तो प्रमाद होने पर, कषायें जगने पर इतनी भी दुर्दशा हो जाती है। तब मनुष्य होना कोई एक मौज मत मानो कि हमने सब कुछ पा लिया, हमसे बढ़कर और कौन है, हम हर तरह से चतुर हैं ऐसा गर्व मत करो। पता नहीं इस भव के बाद फिर कौनसा भव बिताना पड़े। यदि ज्ञान न जगा, कुछ संयम मार्ग में न चले, अपने को संयत न बना सके तो सन्मार्ग छूट जायेगा।
आत्महित में गृहीतमिथ्यात्व की प्रबल बाधकता―एक गृहीत मिथ्यात्व होता है। वह तो बहुत अधिक प्रबल बाधक है। कभी इस जीव को उत्तम मार्ग मिले तो उसे भी यह छोड़ देता है। गृहीत मिथ्यात्व के मायने हैं जान बूझकर उपदेश सुनकर समझकर, पढ़-लिखकर कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र प्रीति करना इसका नाम है गृहीत मिथ्यात्व। आप देख लो रागी द्वेषी देवता के मानने वाले कितने मजहब हैं किंतु उनका संकल्प कितना उसी ओर लगा हुआ है, उन्हें कोई समझायें तो उल्टा वे दूसरे को मिथ्यादृष्टि अज्ञानी मानते हैं और अपनी जो प्रवृत्ति है उस गृहीत मिथ्यात्व संबंधी उस ही में वे अपनी चतुराई की प्रवृत्ति मानते हैं। अब जरा अपनी वर्तमान स्थिति पर तो कुछ दृष्टि कीजिए, कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र, कुधर्म इनकी मान्यता भी नहीं रही, तो इतनी तक सुविधाएँ हैं, ऐसा सुंदर वातावरण मिला है फिर भी हम ज्ञानोपयोग का यत्न न करें तो यह सब हमारा आलस्य है और हमें ही दु:ख देने वाली बात है। यहाँ देख लो 24 घंटे में कितना समय व्यर्थ नष्ट होता है? लोगों को धन कमाने से बड़ी प्रीति है किंतु धन कमाने में भी कितना समय लगाते हैं। बहुत-बहुत समय लगने पर भी 4-6-8 घंटे ही समय लग पाता है। बाकी समय का उपयोग है आप लोगों का, अपनी चर्चा में विचार लो किंतु ऐसी मन में स्वच्छदता है कि समय तो खो देंगे नाना प्रकार से, पर ज्ञानार्जन के लिए ज्ञानदृष्टि के लिए कुछ समय न बचा सकेंगे।
ज्ञान दृष्टि से शांति लाभ―भैया !शांति मिलती है जिस किसी को भी तो एक ज्ञानदृष्टि से मिलती है। जब यह जीव अपने को इससे न्यारा केवल ज्ञानज्योति मात्र निर्लेप असहाय अकेला ज्ञानदृष्टि में लेता है तो उसके पास कोई विपत्ति नहीं फटकती। लोगों को तो यह विपदा लगी है कि लोग क्या कहेंगे? जिनमें हम रहते हैं वे क्या कहेंगे? अरे ज्ञानी के तो यह साहस जगता कि जिनमें हम रहते हैं वे यदि अज्ञानी हैं तो इनके कहने का बुरा क्या मानना, और यदि वे ज्ञानी हैं तो हम जितना उपेक्षा में चलेंगे, वैराग्य में चलेंगे वह तो सराहना करने वाला होगा। तो अपना निर्णय करना चाहिए कि हमको सही मार्ग कैसे मिले, शांति कैसे मिले, इस ओर अपना उद्यम होना चाहिए। जगत अपने को किसी तरह कुछ इन बातों का महत्त्व न देना चाहिए। बुरा कहते हों कहें, भला कहते हों कहें। भले शुद्ध मार्ग पर चलने पर भला कहने वाले तो बहुत कम हैं क्योंकि लोगों को भलाई से प्रीति है ही नहीं। हम यदि भलाई के मार्ग में चलें तो हमें भी अच्छा कहने वाला कौन होगा? तो बाह्य की कुछ हम परवाह न करें और हम अपने रत्नत्रय की, सम्यक्त्व की, ज्ञान की, चारित्र की साधना में रहें। बोधिदुर्लभ भावना में यही शिक्षा दी है कि दुर्लभ चीज तत्त्वज्ञान पाया है तो इसे स्थिर करें, प्रमादी बनकर इस तत्त्वज्ञान से च्युत न हों।