वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 241
From जैनकोष
सुलभमिह समस्त वस्तुजातं जगत्यामरगसुरनरेंद्रै: प्रार्थितं चाधिपत्यं।
कृतबलसुभगत्वोद्दामरामादि चान्यत्, किमुत तदिदमेकं बोधिरत्नम्।।241।।
बोधिरत्न की दुर्लभता―इस संसार में सभी चीजों का मिलना सुलभ है किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप परिणाम का मिलना दुर्लभ है। शांति का कारण कोर्इ सा भी परपदार्थ नहीं है, बल्कि परपदार्थों का संबंध तृष्णा का कारण है और असंतोष का कारण है। जितना मिला उससे अधिक और मिलना चाहिए, बस इस धुन में मिले हुए का भी सुख नहीं भोग सकते हैं। इस संसार में जितने भी ऊँचे-ऊँचे पद हैं, लौकिक सुख के जो साधन हैं, धरणेंद्र होना सुरेंद्र होना अथवा इनके जो अधिपति हैं उनसे भी बढ़कर जो अधिपति हैं वे सब सुलभ हैं। कर्मों के उदय से ये सब मिलते हैं जिसका वर्णन अभी इस बोधिदुर्लभ भावना में किया है। उत्तम कुल मिला, बल मिला, सुंदरता मिली, अच्छी बुद्धि मिली, दीर्घ आयु हुई, ये सब सुलभ हुए किंतु बोधिरत्न पाना अत्यंत दुर्लभ है। ऐसा ज्ञान मिलना जिस ज्ञान के प्रताप से यह आत्मा संसार के समस्त संकटों से छूटकर संकट रहित निर्वाण पद में जा विराजे, ऐसा भाव मिलना यह एक दुर्लभ चीज है। आज तक संसार में भ्रमण करते हुए क्या-क्या नहीं पाया? जो आज समागम मिला है इससे करोड़ों गुना समागम पाया। बड़े-बड़े महाराजा भी हुए, देव भी हुए सभी लौकिक बातें पायी किंतु एक सम्यग्ज्ञान नहीं पाया।
यथार्थ ज्ञान में अशांति के कारण का अनवकाश―भला जिस ज्ञान में समस्त पदार्थों का सही स्वरूप आ रहा हो, प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अपने-अपने प्रदेशों में ही है, अपने ही परिणमन से परिणमते हैं। किसी का कोई अधिकारी नहीं है। जैसे सामने दिखने वाले जो पदार्थ हैं चौकी है, पुस्तक है, घड़ी है, ये सब न्यारे-न्यारे नजर आ रहे हैं। ऐसे ही जितने भी द्रव्य हैं वे सभी द्रव्य न्यारे-न्यारे―स्वयं अपने ही अपने गुण पर्याय में हैं, अपने ही प्रदेशों में हैं। किसी का किसी दूसरे में कोई अधिपत्य नहीं है ऐसा नजर में आये जिस ज्ञान में उसमें अशांति को कोई कारण नहीं है। अशांति होती ही तब है जब किसी परपदार्थ पर हमारा आकर्षण हो, उसे हम चाहते हों, उससे सुख मानते हों, उससे अपना बड़प्पन समझा हो और वह चूँकि है नहीं मेरा, वास्तव में भिन्न है, अपनी सत्ता अलग रखता है तो जब उसे रहना हो रहेगा, जाना हो जायगा और जिस तरह उसे परिणमना होगा परिणमेगा, हम उसको देखकर दु:खी क्यों हो, हाँ ऐसा क्यों न हुआ? तो जगत में सभी चीजें सुलभ हैं, परंतु सम्यक्त्व का पाना, रत्नत्रय का पाना यह एक दुर्लभ है।
दुर्लभ बोधि प्राप्त करके परोपेक्षण करने का अनुरोध―यह बोधिदुर्लभ भावना है जिसमें यह भावना भायी है कि देख भाई तू कभी निगोद में था, वहाँ से निकलकर एकेंद्रिय में, फिर दो इंद्रिय में, तीन इंद्रिय में, चार इंद्रिय में, असंज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्त में, असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त में, संज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्त में संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त में―पैदा हुआ। यहाँ तक तिर्यंच में ही रहकर इतनी उन्नति की थी। वहाँ से निकलकर अन्य-अन्य गतियों में गया और फिर सबसे श्रेष्ठ जो मनुष्यगति है उसमें तू आ गया। देखिये कितनी निकृष्ट स्थितियों से उठकर तू आज इतनी ऊँची स्थिति में है। मनुष्य में तू पर्याप्त है और फिर गुणसंपन्न है, उत्तम देश जाति वाला है, आयु भी विशेष मिली है, साधन भी आजीविका के सही हैं, बुद्धि भी उत्तम है, शांत परिणाम भी मिला है। अब केवल एक ही बात की कमी है कि ऐसी स्वच्छ श्रद्धा बने जिससे कि तू तत्त्व निर्णय कर ले। सब कुछ पाया पर तत्त्वनिर्णय की बात नहीं पायी। तत्त्वनिर्णय में ही बोधि भरी है। उसी में सम्यक्त्व है, सम्यग्ज्ञान है, सम्यक्चारित्र है। जैसे हम इन चीजों को निरखते हैं और निरखकर बताते यह हैं ऐसे ही अपने ही में लगे हुए देह को निरखकर यह उपयोग क्यों नहीं जमता कि यह देह शरीर परमाणुवों का पुंज है, यह मैं नहीं हूँ। मैं जानन देखनहार इस शरीर गृह में रहता जरूर हूँ इस समय, पर शरीर ही में नहीं हूँ। इतना भी निश्चय नहीं दूसरों को मरते हुए भी देखकर कि यह जीव न्यारा है, इस शरीर को छोड़कर चल देता है।
शरीर से भिन्न जीवत्व का निश्चय―कोई यह कहे कि शरीर छोड़कर क्या चल दिया, जीव कोई है ही नहीं। शरीर में जब तक कर्म हैं उसका नाम जीव रख दिया। जीव अलग कैसे? तो इस पर युक्तियाँ देखिये, जितने भी जड़ पदार्थ हैं उनके स्वभाव पडा है, उनका कैसा भी मिलान हो जाय, किंतु जड़ से ज्ञान की उत्पत्ति हो जाय यह युक्ति में नहीं बैठता। जिस पदार्थ का जो स्वरूप है वह स्वरूप सदा रहता है। जड़ में जड़ता सदा रहेगी, जीव में ज्ञानस्वरूपता सदा रहेगी। यदि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनके मिलने से जीव उत्पन्न हो जाय तो रसोई बनाते समय किसी मिट्टी के बर्तन में खिचड़ी तक पक रही है तो उस समय क्या कमी रह गयी? पृथ्वी भी हैं, जल भी हैं, अग्नि भी हैं, हवा भी हैं। वहाँ से क्यों नहीं मनुष्य निकल पड़ते? वहाँ से क्यों नहीं पशु पक्षी उत्पन्न हो जाते? जीव तो अपनी एक स्वरूप सत्ता रखे हुए है। है ना जीव। इतना तो मानेंगे कि ज्ञानमय कोई चीज है। अब जो चीज होती है उसका त्रिकाल विनाश नहीं है, कभी नष्ट नहीं होता। रूप बदल जायगा। यदि ज्ञानमय आत्मपदार्थ इस शरीर में है और कुछ समय बाद नहीं रहता तो उसी का नाम मरण है सो दूसरे को देख देखकर भी हम यह निर्णय नहीं रखते कि हमारा भी वही समय अति निकट आने को है जब तक भी इस मनुष्य देह को त्यागकर चल बसेंगे। आज जो मौका मिला है, बुद्धि मिली है तो हम धर्म के लिए ज्ञानार्जन के लिए क्यों न अधिक से अधिक अपना उपयोग करें?
बाह्य वैभव आकर्षण की व्यर्थता―भैया ! बाहरी चीजें, वैभव पैसा कमाना अपने पुरुषार्थ के अधीन बात नहीं है। वहाँ कर्मोदय साथ रहता है तभी तो यह बात है कि बड़े-बड़े पुरुषार्थ करने पर भी किसी के पास यह धन नहीं आता और कोई-कोई लोग आराम से बैठे रहते हैं फिर भी बहुत धन आता है। तो यह धन वैभव बहुत-बहुत श्रम करने से जुड़ जाय ऐसी बात नहीं है। किंतु धर्म की बात आपके पुरुषार्थ से तत्काल होती है, जब आप अपने स्वरूप का श्रद्धान् करते जायेंगे, उसका ज्ञान करना चाहेंगे, उसकी रुचि रखेंगे तो अपने उपयोग को अपने आपमें डुबाने भर की भी तो बात है। धन वैभव का कमाना अपने हाथ की बात नहीं है और अपने आपमें मग्न होना, धर्म पालन करना और स्वाधीन आनंद भोगना यह अपने हाथ की बात है। तो जो स्वाधीन बात है, सुगम है उस ओर तो हम दृष्टि नहीं देते और जो पराधीन है उसमें हम अपना आकर्षण रखते नाता जोड़ते हैं, यह हालत है। सो यहाँ किसको क्या बताना? सभी लोग जो दृश्यमान हैं कुछ दिन जी कर मरेंगे और ये भी मायारूप हैं ये खुद मोही रागी हैं, कर्म कलंक से मलीमस हैं। कोर्इ प्रभु है क्या यहाँ? ये कोई काम न आयेगा। ऐसे इस लोक में हम बड़े हैं। हम धनाढ्य हैं, गुणी हैं, नेता हैं, ऐसा कुछ भी दिखायें तो किसलिए दिखायें? क्या ये प्रभु हैं, क्या इनके हाथ में हमारा सुख दु:ख है? कुछ भी तो नहीं है। हमें अपने ढंग से चलना है और ढंग से चलते हुए में निमित्त होते हैं तो हों। धन आता है तो आये, पर हम किसी को रिझाने के लिए, किसी को खुश करने के लिए, किसी से प्रशंसा लूटने के लिए हम कुछ करनी करते हैं तो वह बड़ा अंधकार है, अज्ञान है, अपने आपका ही कुछ पता नहीं है, सुध नहीं रही, फिर तो दुनिया को दिखाने के लिए हमें कुछ नहीं बनना है।
शांति के अर्थ सुबोध का उद्यम―भैया ! अपने आपको मैं कैसे शांति में लगा सकता हूँ, क्या ज्ञान बनाना है, किस प्रकार का आचरण करना है? यह निर्णय करें और उस तरह से रहें, फिर जो होना है सो होने दो। सबसे उत्कृष्ट चीज है तो अपने आपकी सुध रहना, अपनी ओर झुकाव रहना। लोक में भी जब बड़े-बड़े संकट आ जाते हैं उन संकटों के समय में कौन साथ देता है? खुद ही भेद विज्ञान करते हैं और पर वस्तुओं से अपनी दृष्टि हटाकर अपने में विश्राम करते हैं तो शांति मिलती है। अशांति है किस बात की, सिवाय इस कथन के इस बात के और कुछ न पायेंगे कि अमुक को परद्रव्यों में राग है, मोह है इस वजह से उसे दु:ख है। जितने भी दुनिया में दु:ख हैं उन सबका कारण इतना ही है कि किसी न किसी परद्रव्य में राग है सो उसे दु:ख है। जगत में सभी दु:खी है और सबकी रिर्पोट ले लो। सबके दु:ख की कहानी सुन लो और बराबर निर्णय देते रहो, देखो इससे अत्यंत भिन्न है परद्रव्य, पर उसके प्रति राग भाव है उसको सो उसे दु:ख है। और यह व्यर्थ का दु:ख है। मैं तो एक स्वतंत्र आत्मा हूँ, मेरा किसी परद्रव्य से कुछ संबंध नहीं है। यदि ये परद्रव्य पास रहें तो इससे आत्मा का बढ़ावा हो जायेगा और न रहें तो इस आत्मा का क्या घट जाएगा? आत्मा में जितनी शक्तियाँ हैं ज्ञान, दर्शन, आनंद जितने भी गुण हैं क्या उनमें कोई गुण कम हुए हैं आज तक―क्या स्वरूप बदला है, क्या पदार्थ अपने लक्षण को कभी छोड़ सकता है? क्या दु:ख है, क्या क्लेश है। अजी लोग मुझे क्या समझेंगे यह सब कुछ नहीं रहे, इसका दु:ख है। तो अज्ञान होने का ही तो दु:ख हुआ। तुम्हें क्या लोगों से पडी है, ये लोग करेंगे क्या तुम्हारा? अपने आपका झुकाव बने अपनी ओर मुड़ जावो। आज मनुष्य हैं सो ऐसी बातें हाँकते हैं और मनुष्य का लिहाज करते हैं। इनमें अपने को बड़ा जताना चाहते हैं। कल्पना करो कि आज मनुष्य न होते, किसी बिल के चींटी चींटा होते तो हमारे लिए मनुष्यों का रुझान क्या होता? समझ लो हम इस मनुष्य भव में न होते, अन्य किसी भव में होते तो यहाँ का दृश्यमान कुछ भी मेरा न होता ना? हो गए मनुष्य तो अब लौकिक आकर्षण की बात छोड़कर जिसमें आत्महित हो उस बात में लग जावो।
सब चीजें इस जीव ने अनेक बार पायी, पर रत्नत्रय नहीं पाया। देखिये लोग पूछते हैं कि आपका स्वास्थ्य कैसा है? तो क्या पूछा आप अपने आत्मा में कैसे ठहर रहे हैं, ठहर पाते हैं या नहीं? यह अर्थ है, पर यह सुनने वाला अपने शरीर को निरखकर मूँछों पर ताव देकर कहता है हाँ मैं बहुत स्वस्थ हूँ। अरे पूछा तो कुछ और उत्तर कुछ दिया। पूछते है लोग कि आप प्रसन्न हैं ना, तो क्या है प्रसन्न का अर्थ? जो शब्द का अर्थ जानते हैं समझ जायेंगे। प्रसन्न का अर्थ है निर्मल होना, निर्दोष होना। जैसे बताते हैं कि शरद ऋतु में तालाब प्रसन्न हो जाते हैं। मायने निर्मल हो जाते हैं। तो पूछ तो यह रहे हैं कि आप प्रसन्न हैं ना, विकार तो नहीं है चित्त में और उत्तर क्या देते हैं खूब काम चल रहा है, लड़के बच्चे बहुत हैं, हम बहुत प्रसन्न हैं। सारी मलिनता की बातें बताते हैं। तो शब्द का मर्म न जानने से तो बिल्कुल बहरें की तरह हैं। जैसे कोई बहरा था, बाजार से बैंगन खरीद कर चला। रास्ते में उससे एक किसान ने पूछा और कुछ, उसने जवाब दिया और कुछ। किसान ने पूछा―आप कहाँ जा रहे हैं? उत्तर दिया हम बैंगन लिए जा रहे हैं। फिर पूछा घर में बाल बच्चे अच्छे हैं ना, उत्तर दिया―सारों को भुनकर खायेंगे। तो ऐसे ही पूछते हैं कुछ, उत्तर कुछ देते हैं। शब्दों में सारे उपदेश भरे हैं। कोईसा भी शब्द ले लो। वह शब्द ही अपना स्वरूप बता देता है।
आत्मा व पुद्गल शब्द से उन पदार्थों के मर्म का दिग्दर्शन―आत्मा का अर्थ क्या है? जो ज्ञान द्वारा सारे लोक को व्याप ले उसे आत्मा कहते हैं। आत्मा-आत्मा सब कहते हैं, पर आत्मा का स्वरूप क्या है, यह स्वरूप शब्द ही बतला देता है। ये जो जड़ पदार्थ रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं इन पदार्थों का नाम क्या है? इनका नाम दिया है जैन शासन में पुद्गल। अब इनको कोई पदार्थ बोलेंगे। तो पदार्थ तो जीव भी होते हैं, कोई मैटर लेंगे। अरे तो मैटर―पदार्थ वस्तु ही तो हुए। अब पुद्गल का अर्थ समझो। इसमें दो शब्द भरें हैं जो पूरे और गले उसका नाम पुद्गल है। अर्थात् जो मिलकर बढ़ जाय और घट कर गल जाय उसका नाम पुद्गल है। ये पदार्थ मिल-मिलकर एक बन जाते हैं पर जीव में यह खासियत है कि जीव-जीव मिलकर एक नहीं बन सकते बढ़ नहीं सकते। और जब मिल सकते तो गलने की तो बात ही क्या है? धर्मद्रव्य है वह भी मिलता गलता नहीं, कालद्रव्य भी मिलता बिछुड़ता नहीं है। एक पुद्गल ये परमाणु ऐसे हैं कि ये मिलकर एक पिंड बन जायें और बिछुड़कर गलकर अलग-अलग हो जायें यह विशेषता जिसमें हो उसका नाम है पुद्गल। कोई कहेगा भौतिक पदार्थ। भौतिक का अर्थ क्या है? जो भूत से बना है भौतिक। भूत भू धातु से बना है। जो है उसका नाम है भूत। जो सत् हो। यह सत् नाम चलता है हर जगह तो भूत शब्द से विशिष्ट पदार्थ तो वाच्य न हुआ। जैन शासन में जो-जो मूल नाम रखे गए हैं परिभाषा में वे कितना विचारों से भरे हुए हैं? इस समय हम आप जो एक-एक बैठे हुए हैं इनमें जीव तो एक है, पर मैं अपने आपका जीव हूँ, मुझमें मेरा अपना जीव है। जीव तो एक है और अनंत शरीर के परमाणुवों का पुंज हैं और इसके परमाणुवों से भी अनंत गुने कर्मों का ढेर लदा हुआ है। इस तरह यह जो एक पर्याय है यह अनंत शरीर वर्गणाओं का और अनंत कर्म परमाणुवों का पिंड है और जीव केवल एक है। ये कई चीजें बन गयी, यह अनेक परमाणुवों का ढेर है। तो देखो शरीर-शरीर मिलकर एक पिंड बन जाय और जीव-जीव मिलकर कभी एक नहीं बन सकते। लेकिन इस मोही जीव को अन्य जीवों में कितना मोह बसा हुआ है जो कभी भी किसी भी ढंग से एक नहीं हो सकते।
वस्तुस्वातंत्र्यबोध का लाभ―वस्तु का स्वतंत्र रूप है वह ध्यान में आ जाय तो उससे बढ़कर और कोई शोभामयी चीज नहीं है। यहाँ की भी चीजें सदा पास न रहेंगी, और मानो रह भी जायें पास और ज्ञान सही नहीं है तो सुख नहीं मिल सकता और ये पदार्थ न भी हों पास और ज्ञान सही है तो वहाँ सुख मिल सकता है। परमार्थ से विचार करो तो जो पराधीन है वह दुर्लभ है और जो स्वाधीन वस्तु है वह सुलभ है। जो पराधीन चीज है उसे तो यह मोही सुलभ मानता है और जो खुद की चीज है उसे दुर्लभ मानता है। जब तक यह आत्मा अपने स्वरूप को नहीं जानता, कर्मों के अधीन है तब तक अपना स्वभाव पाना इसे अत्यंत दुर्लभ हो रहा है। इस बोधिदुर्लभ भावना को सोचकर हम अपने चित्त में यह निर्णय बनायें कि जब एक किसी भी प्रकार हम अनेक खोटी स्थितियों से निकलकर आज मनुष्य हुए हैं, उत्तम जाति कुल प्राप्त हुआ है, बुद्धि भी मिली है, जैन शासन मिला है, सत्संगति मिल रही है तो कितना उत्कृष्ट अवसर मिला
है? अपना अपूर्व लाभ उठाने का भीतर में विवेक बने, सम्यग्ज्ञान का प्रकाश हो, प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र नजर आयें जिससे पर से उपेक्षा बने, अपने आपमें रुचि जगे, अपने आपमें मग्न हो सकें, ऐसा अपना भीतरी पुरुषार्थ बन सके तो वह समझिये कि सच्चा पुरुषार्थ है और इसी से ही हमारा मनुष्य होना सफल है।