वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 32
From जैनकोष
स्वसिद्धयर्थं प्रवृत्तानां सतामपि च दुर्धिय:।
द्वेषबुद्धया प्रवर्तंते केचिज्जगति जंतव:।।32।।
दुर्बुद्धियों के द्वेषबुद्धि का प्रवर्तन― इस लोक में अनेक दुर्बुद्धिजन ऐसे भी हैं जो अपने मतलब की सिद्धि के लिये सत्पुरुषों से भी द्वेष बुद्धि का व्यवहार करते हैं। अर्थात् दुष्ट जीव सत्पुरुषों से द्वेष रखते हैं। इस कथन से हम यह शिक्षा लें, किसी के बहकाये से हम कहीं दोषों को ग्रहण न करें किंतु विवेक करें। द्वेष की बात मिलती हो उपदेश में, शास्त्रों में तो वहाँ हम उसका विरोध करें। प्राय: आज यही तो हो रहा है समाज में। जो किसी दूसरे से वात्सल्य रखता है तो यहाँ भी वह सही ज्ञान रख रहा है इस नाते से वात्सल्य नहीं करता, किंतु वे जिस मंतव्य की प्राप्ति करना चाहते हों उस मंतव्य के ध्येय के ये सहायक हैं, उनमें हमारे विकल्प के माफिक भी प्रतीति है, इस नाते से आज वात्सल्य चल रहा है और इसी कारण आज इस संप्रदाय में अंत: कितना विरोध है, कितनी खाइयाँहैं? यह सब कुछ थोड़ा बहुत ज्ञान रखने वाले और अखबारों से समाचार जानने वाले समझते हैं, वही धर्म के प्रसंग में रीति रिवाज चल गया है जो रिवाज में अथवा पार्टियों में चला करता है। तो है क्या? यह एक समय का दोष है या किसका दोष कहें?
स्वहित भावना के अभाव में धर्म के नाम पर पक्ष― जब तक चित्त में ईमानदारी से आत्महित की प्रेरणा नहीं होती है तब तक सारी विडंबनाएँहोती हैं। इस अशरण संसार में हमें क्या गाड़ जाना है? कौनसा कीर्ति स्तंभ गाड़ जाना है। किसके लिये इतना धर्म के नाम पर पार्टियाँ करके इस धर्म की जड़ को खोखला करने का प्रयत्न किया जा रहा है? बात तो असल में यह है कि स्वहित की जब तक तीव्र भावना नहीं जगती है तब तक अनेक विडंबनाएँ चलती हैं। यह एक जैन भारत पर व्यापक दृष्टि देकर कहा जा रहा है, इसी कारण यह अशक्त समाज बनता चला जा रहा है।
शुद्ध पथ के आलंबन का संकल्प― इस श्लोक में शुभचंद्राचार्य कहते हैं कि दुष्ट पुरुष सत्पुरुषों से द्वेष रखा करते हैं। पर कुछ हो, इस ज्ञान और धर्म के प्रसंग में भी ईमानदारी न त्यागनी चाहिये। यद्यपि आज यह कठिन अवस्था हो गयी है कि कोई पढ़ालिखा पुरुष यदि किसी पार्टी में शामिल नहीं होता है तो उसकी सभी पार्टी वाले उपेक्षा अथवा दुर्दशा करने का यत्न करते हैं। लेकिन यह भी एक शुद्ध पथ का आलंबन है कि जो स्याद्वाद से अनेकांत को समझा है उस पर दृढ़ रहना और परवाह न करना, वहाँ काहे की पार्टी है?यह तो एक धर्म का पथ है, ज्ञानपथ है, मोक्षपथ है, उस पर हमें चलना है, कर्मों के बंधन से अनेक प्रकार के बातों से त्रस्त हुए हम यहाँकुछ सजाकर विषय सुखों की बात बतायें तो वह ज्ञानियों को अवांछनीय है।