वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 351
From जैनकोष
अथ निर्णीततत्त्वार्थी धन्या: संविग्नमानसा:।कीर्त्यनते यमिनो जन्मसंभूतसुखनि:स्पृहा: ॥351॥
ज्ञानी मुनियों के ध्यान की प्रशंसा –अब ध्याता योगीश्वरों की विशेषतायें कही जा रहीं हैं । जो संयमी मुनि तत्त्वार्थ का निर्णय कर चुके हैं तथा सम्वेगरूप हैं, मोक्ष अथवा मोक्ष के मार्ग में अनुरागी हैं, संसारजन्य सुखों में वांछारहित हैं ऐसे मुनि धन्य हैं । ध्यान सिद्धि के पात्र ऐसे साधु ही होते हैं जिनको केवल एक आत्मदर्शन, आत्मध्यान की ही लगन है और यह लगन इतनी दृढ़ और प्रबल है कि सर्वपरिग्रह तो छूट ही गए थे, देह की भी सुध नहीं रहती, इस ओर भी दृष्टि नहीं रहती ऐसी अधिक लगन के साथ जो मुनि अर्ंतदृष्टि में बर्तते हैं उनके ही ध्यान की उत्तम सिद्धि होती है । जिसका ध्यान करते हैं, जिसे चाहा है उसकी ओर की उत्कृष्ट भावना तो होनी ही चाहिए । अन्यथा विशिष्ट ध्यान नहीं बन सकता । ध्यान के लिए प्रथम बात तो यह दर्शाया है कि तत्त्वार्थ का निर्णय होना चाहिए ।अर्ंतरंग विधि से ही बाह्यविधि की पूरकता –कई सन्यासी ऐसे भी होते हैं कि वे ध्यान की बाह्य विधि में प्रवीण होते हैं ? किसी शून्य पर किसी चिन्ह पर बहुत देर तक दृष्टि लगायें रहना, पूरक, कुंभक, रेचक प्राणायाम की, साधना रखना और यहाँ तक भी प्राणायाम की साधना का अभ्यास हो जाता है कि कई घंटा श्वांस को रोक सकें, जैसे लौकिक चमत्काररूप के अब भी यत्र तत्र लोग सुने जाते हैं । लेकिन, सर्वसार क्या है, हितरूप लक्ष्य क्या है, इसका परिचय न हो तो ऐसे उपयोग से भले ही देहसाधना हुई, मन की साधना हुई, पर उत्तम ध्यान की साधना नहीं बनती । यों समझ लीजिए कि यह उपयोग अपने स्वभाव से भ्रष्ट होकर पर की ओर विकल्पों में रम रहा है, यही तो बंधन है और यही सर्व विपदाओं का मूल है । इस विपदा से छुटकारा तब ही तो संभव है जब सर्व परभावों से परपदार्थों से पर तत्त्वों से न्यारा यह ज्ञानप्रकाशमात्र मैं हूँ ऐसा दृढ़ निर्णय करके अपने को निर्भार अनुभव करे । ऐसे स्वानुभवी को ही तो अपने आपमें मग्नता की बात आ सकेगी । अतएव सर्वप्रथम कहा गया है कि तत्त्वार्थ का सही निर्णय होना चाहिए ।
ज्ञानयोग से ध्याता की उत्कृष्टता –देखिये भैया ! विज्ञान में यद्यपि सभी बातें हैं लेकिन वस्तुस्वरूप का परिचय पाये बिना और वस्तुस्वातंत्र्य की पद्धति से पदार्थों को देखने की