वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 353
From जैनकोष
विरज्य कामभोषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् ।यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्यातां प्रशस्यते ॥353॥
नि:स्पृह स्थिरचित्त योगियों का प्रशंसनीय ध्यातृत्व –जिसका चित्त काम और भोगों से विरक्त होकर शरीर में स्पृहा को त्यागकर स्थिरीभूत हुआ है वही ध्याता प्रशंसनीय है । काम और भोग ये दो चीजें क्या हैं अलग-अलग । एक ही चीज है, तो यों अर्थ लगायें काम का भोग अथवा कामसहित भोग, इच्छासहित विषयों का सेवन, और यदि दो चीजें समझना हो तो काम शब्द से यों समझ लो स्पर्शनइंद्रिय और रसनाइंद्रिय के विषय तथा भोग शब्द से समझ लो प्राण, चक्षु और कर्ण का विषय । ऐसा समझने की कुछ गुँजाइश तो है । भोग शब्द की रुढ़ि उन पदार्थों के भोगने में हुई है कि जिनके भोगने पर पदार्थ में बिगाड़ अथवा विनाश विघात नहीं होता है । जैसे कि बहुत कुछ देखा जाता है, आँख से देख लिया तो उस पदार्थ का मंथन नहीं हुआ, लेकिन स्पर्शन और रसनाइंद्रिय से जो विषय सेया जाता उसमें पदार्थ का स्पर्श, मंथन बिगाड़ होता है और यह तो स्पष्ट ही है कि, भोजन का तो पूरा ही बिगाड़ हो जाता है । भोजन के विषय में कुछ लोग अधिक आशक्ति रखते हैं अन्य इंद्रिय की अपेक्षा लेकिन यह तो देखिये कि जिस समय भोजन का स्वाद आ रहा है उस समय किस तरह के भोजन का स्वाद आ रहा है । थाली में लड्डू रखे हैं तो कितने अच्छे आकार के चमकदार हैं, वे पूर्ण हैं, बढ़िया रखे है । और जिस लड्डू का मुख में स्वाद लिये जा रहा है उसकी क्या दशा है । वह हमें अपनी आँखों तो नहीं दिखता क्योंकि वह मुख में है । अगर वह आँखों दिख जाय तो खाया न जाय, ऐसी स्थिति हो जाती है । तो काम में वस्तु का मंथन बिगाड़, विघात, क्लेश ये बातें होती हैं इस दृष्टि से काम शब्द से अर्थ लगा लो स्पर्शन और रसनाइंद्रिय और भोग शब्द का अर्थ लगा लो घ्राण, चक्षु और स्त्रोत के विषय । इस प्रकरण में हमारा बिगाड़ हुआ इसकी प्रधानता से नहीं कहा जा रहा है, क्योंकि हमारा बिगाड़ तो पाँचों विषयों में है, किंतु जो पदार्थ भोगे जा रहे हैं वे पदार्थ बिगड़ जायें इस दृष्टि से कहा जा रहा है इस कथन का मतलब यह है कि पंचेंद्रिय के विषयों से विरक्त होकर जो इस अशुद्ध शरीर में स्पृहा को त्याग देते हैं, अतएव जिनका चित्त स्थिरीभूत है वे ध्याता प्रशंसनीय हैं ।
पापभाव से चित्त की अस्थिरता –पापकार्यों से चित्त की अस्थिरता होती है । कोई सुभट ऐसे भी होते हैं कि पापकार्य भी करते जायें और चित्त भी लोगों को अस्थिर न दिखे, लेकिन पापकार्यों से उत्पन्न हुई निर्बलता जुड़ते-जुड़ते एकदम किसी भी समय उनका अस्थिरीकरण हो जाता है । जो बात जिस प्रसंग में जिस योग्यता में होनी होती है वह हुआ ही करती है । जैसे पुण्य का उदय प्रबल हो तो वर्तमान में किए जाने वाले पापकार्यों का तुरंत असर नहीं होता, न लोगों में इज्जत कम होती, न लोगों के द्वारा किया जाने वाला आदर कम होता और न शरीर में मन में, वचन में कोई बल की कमी होती, लेकिन पापकार्यों में रत पुरुष की यह गाड़ी चल कब तक सकती है । देर तो हो जाय पर अंधेर नहीं है । तो पापकार्यों से चित्त को अस्थिरता होती है । और, अस्थिर चित्त में ध्यान की साधना नहीं है ।अविकारस्वरूप के अवलंबन की शुद्ध प्रयोजकता –वह साधु प्रशंसनीय है जिसका मन काम से विरक्त होकर शरीर में वांछा न होने से स्थिर हो गया है । लोग दूसरों की भक्ति एक तो करते ही नहीं हैं । करें तो उसमें निज का कुछ करने का ही संबंध है । कोई पुरुष प्रभु की भक्ति कर रहा है तो वह वस्तुत: प्रभु की क्या भक्ति कर रहा है ? प्रभु के गुण सुहाये तो उस ओर अपने आपमें अपने गुणों का अनुभवन जगा, बस उन गुणों को बढ़ानेरूप अपनी अपनी भक्ति हो रही है । तो इस प्रकार कोई पुरुष भी जिस किसी दूसरे का आदर करता है तो उसे अपने आपमें गुण सुहानेरूप गुणकीर्तनरूप जो भाव धर्म है जो इसके गुणों का विकासरूप है, वह अपने ही गुणविकास का मानो मौन स्तवन कर रहा है । कोई जीव किसी का कुछ नहीं करता । यदि कोई किसी दूसरे के दोषों का ग्रहण कर रहा है तो दोषों के ग्रहण करनेरूप जो विकार का परिणमन हुआ है वह परिणमन हुआ है वह परिणमन एक अपने आपमें दोष के ग्रहणरूप है । सो अब उपयोग ऐसा स्वयं दोषरूप बनने पर हुआ है ना, अतएव उसने अपना ही दोष प्रकट किया है । यों समझिये कि सर्वस्थितियों में हम जो कुछ करते हैं अपने आपका ही किया करते हैं, दूसरे का कुछ नहीं करते । यह प्रशंसनीय ध्याता पुरुष काम भोगों से विरक्त होकर शरीर में स्पृहा को छोड़कर जो स्थिरपरिणमन से रह रहा है वह इसने स्व कार्य किया ।ऐसा ध्याता प्रशंसनीय ध्याता प्रशंसनीय ध्याता है और हम अपनी ही शुद्धि के लिए ऐसे योगीश्वरों की शरण गहते हैं, इनके उपदेश को सुनते हैं, ग्रहण करते हैं ।