वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 382
From जैनकोष
त्रिशुद्धिपूर्वक ध्यानमामनंति मनीषिण: ।व्यर्थ रत्तामनासद्य तदेवात्र शरीरिणाम् ॥382॥
उत्तम ध्यान की रत्नत्रयविशुद्धिपूर्वकता -- विद्वान् पुरुषों ने दर्शन ज्ञानचारित्र की शुद्धतापूर्वक ही ध्यान को माना है । जहाँ श्रद्धान निर्मल हो, ज्ञान निर्मल हो, आचरण निर्मल हो ऐसी स्थिति में परमध्यान बनता है । इस कारण रत्नत्रय की शुद्धि पाये बिना जीव के ध्यान की सिद्धि नहीं होती । क्योंकि रत्नत्रय के विरुद्ध जो कुछ भी ध्यानादिक साधनाएँ हैं वे मोक्ष फल के अर्थ नहीं है । वे सांसारिक सिद्धियों के लिए हैं । किसी ने श्वास निरोध का चमत्कार लोगों को दिखा दिया तो उसका प्रयोजन या तो धर्नाजन का होगा या कीर्ति का होगा । ऐसे ध्यान से मोक्षफल की प्राप्ति नहीं होती । जिसे मुक्त होना है उसका सही स्वरूप न जाने और यह भी श्रद्धा में न आये कि जिन चीजों से हमें अपने को मुक्त करना है उन तत्त्वों से छूटे रहने का मेरा स्वभाव है तो मुक्ति का उपाय कैसे बनेगा ? मैं उस स्वभावरूप नहीं हूँ । ऐसी श्रद्धा होगी तभी तो छूट सकने का यत्न होगा और छूट सकेंगे । किसी भी प्रकार हुआ हो, यह आत्मा जो परतत्त्वों में लगा है, परिणत है, वे समस्त परतत्त्व मेरे सत्त्व में नहीं हैं, मेरे स्वरूप में नहीं हैं, अतएव वे हट सकते हैं, ऐसी श्रद्धा के साथ फिर ऐसी ही धारणा बने और ऐसे ही केवल निज आत्मतत्त्व को निरखा जाय तो इस निरख में आत्मा की उपयोग विशुद्धि बढ़ती है और कैवल्य का विकास होने लगता है ।रत्नत्रय की ध्यान मुख्याङ्ता – उसके ध्यान के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्र ही मुख्य अंग हैं । भले ही किसी सीमा तक चित्त के रोकने के लिए अन्य उपाय किए जायें – जैसे किसी बिंदुपर बहुत देर तक दृष्टि स्थिर करने का अभ्यास बढ़ाना या अन्य-अन्य जो जो उपाय हों ध्यानाभ्यास के लिए किए जायें किंतु फल तो वही होगा जैसा आशय होगा । विशुद्ध आशय है तो ध्यानाभ्यास की साधना भी मुझे सहकारी बनेगी और विशुद्ध आशय नहीं है तो ध्यानाभ्यास के अनेक प्रयत्न भी मेरी शांति के साधन नहीं बन सकते हैं । तो रत्नत्रय की शुद्धि हुए बिना, प्राप्ति हुए बिना ध्यान करना व्यर्थ है, अर्थात् उस ध्यान से मुक्ति की सिद्धि नहीं है अतएव इस संभाल में अपने को लगायें कि मैं क्या हूँ, मेरा सहज स्वरूप क्या है, ऐसा ही जो एक सहजस्वरूप विदित हो, ज्ञानानंदस्वरूप केवल ज्योतिपुंज सबसे न्यारे अपने आपके स्वरूप में जो विदित हुआ यह परिचय होगा अद्भुत आनंद के अनुभवों के साथ । जो इस ही तत्त्व की धुन बनाये उसके ध्यान साधना सुगम हो जाती है । उपाय करना चाहिए अपने आपके शुद्धस्वरूप को जानने का ।