वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 384
From जैनकोष
तत्त्वरुचि: सम्क्त्वं तत्त्वप्रख्यापकं भवेज्ज्ञानम् ।पापक्रियानिवृत्ति चारित्रमुक्तं जिनेंद्रेण ॥384॥
सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र का निर्देशन – जिनेंद्र भगवान ने तत्त्व को रुचि को तो सम्यक्त्व कहा है और तत्त्व का यथार्थ ख्यापन करना, अपने उपयोग में प्रसिद्ध करना यह ज्ञान कहा है, और पाप कार्य से निवृत्त होने को चारित्र कहा है । ध्यान के अंगों में मुख्य तीन अंग हैं – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । जैसे बाह्यरूप से लोग ध्यान के 8 अंग कहते हैं – प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, यम आदिक यहाँ अर्ंतदृष्टि से ध्यान के अंग तीन बताये हैं । सम्यक्त्व न हो तो ध्यान के लिए उत्साह नहीं हो सकता । यदि सम्यगज्ञान नहीं है तो ध्यान किसका किया जाय, और उसमें स्थिरता न हो तो ध्यान कैसे बने ? आत्मा की प्रतीति होना सम्यक्त्व है, आत्मस्वरूप का उपयोग होना सम्यग्ज्ञान है और आत्मस्वरूप में स्थिरता हो उसका नाम चारित्र है । तो ये तीन प्रकार की आत्मस्थितियाँ हुई, वहाँ उत्तम ध्यान बनता है । सर्वप्रथम तो आशय निर्मल रखने का यत्न रखना चाहिए । जब हम मोक्ष के मार्ग में लगना चाहते हैं तो हमारा किसी से लाग लपेट न होना चाहिए । जो विशुद्ध मार्ग है, जो आत्महित की दृष्टि है जिसके अवलोकन से अनुभवन से हमारी कषायें ढलती हैं, निराकुलता प्राप्त होती है, यही हमारा कर्तव्य है । न हमारा कोई यहाँ मित्र है, न शत्रु है, न अपना है, न पराया है । मेरा तो मात्र मैं हूँ । ऐसा सच्चा निर्णय रहे तब उसको उत्तम ध्यान की बात आ सकती है । तो ध्यान के अंगों में जिनेंद्रदेव ने जो तीन अंग कहे हैं अर्थात् उनकी दिव्यध्वनि की परंपरा से जो आगम में बताया है वह आत्मस्वरूप है ।