वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 393
From जैनकोष
जीवाजीवास्त्रवा बंध: संवरो निर्जरा तथा ।
मोक्षश्चैतानि सप्तैव तत्त्वान्यूचुर्मनीषिण: ॥363॥॥
सम्यक्त्व में श्रद्धेय जीवादिक सात तत्त्व – सम्यक्त्व के विषयभूत ये 7 तत्त्व हैं – जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इनमें संसार, संसार का मार्ग, मोक्ष और मोक्ष का मार्ग ये सब आ जाते हैं । संसार को भी समझना तत्त्व की बात है । संसारमार्ग भी समझ लेना यह भी तत्त्व है । मोक्ष और मोक्षमार्ग को समझ लेना यह भी तत्त्व है । ये समस्त भेद केवल एक में नहीं उत्पन्न होते । कम से कम दो होने चाहिएँ, तब वहाँ भेद विवरण सब कुछ बनता है । तो इन 7 तत्त्वों के मूल में 2 चीजें हैं – जीव और अजीव । जब जीव में अजीव आता है तो वह आस्त्रव है । जीव में अजीव बंधता है तो वह बंध है । जीव में अजीव न आ सके वह संवर है । जीव में पहिले आये हुए अजीव झड़ जायें सो निर्जरा है और जीव में अजीव सब अलग हो जायें, केवल जीव ही, जीवस्वरूप रह जाय वह मोक्ष है । जीव का स्वरूप शुद्ध ज्ञायक है । उस ज्ञायकस्वरूप जीव के ज्ञायकस्वरूप भाव से विपरीत रागद्वेष आदिक भावों को अपने उपयोग में लगाना आस्त्रव है और उन अजीवों में रागादिक भावों में अपने को रमाना, परंपरा कायम रखना यह बंध है । जीव में रागादिक विकार नहीं हैं ऐसा विशुद्ध उपयोग करके रागरहित अपने को अवलोकन करना यह संवर है और ऐसी स्थिति में उसके संस्कार मिटना सो निर्जरा है और जब यह जीव केवल अपने ही गुणों के विकास में परिपूर्ण है, समस्त परतत्त्वों का अभाव होता है, अपने ही सत्त्व के कारण सहज जो अपने आपमें बात बन सकती है, वही रह जाय इसी का नाम मोक्ष है । ये जीवादिक 7 तत्त्व सम्यक्त्व के विषयभूत हैं इनके यथार्थ श्रद्धान से सम्यक्त्व प्रकट होता है ।