वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 420
From जैनकोष
अवकाशप्रदं व्योम सर्वगं स्वप्रतिष्ठितम् ।लोकालोकविल्पेन तस्य लक्ष्य प्रकीर्तितम् ॥420॥
आकाशद्रव्य का स्वरूप ― आकाशद्रव्य समस्त द्रव्यों को अवगाह देने वाला है और सर्वव्यापी है लोक के अलावा अलोक में भी वही एक अखंड रहकर फैला हुआ है । अन्य सब द्रव्य तो किसी हद तक हैं । मान लो कोई रचना है, मकानात बनाना है, कोई प्राकृतिक भी रचना है, पर्वत आदिक बने हैं तो जो एक पिंडरूप हैं, जिनका ऐसा विभिन्न आकार है उन पदार्थों का कहीं न कहीं अंत जरूर होगा, अभाव अवश्य होगा । यह चौकी बड़ी है तो रहने दो बड़ी, जितनी बड़ी है उतनी रहे, पर सर्वत्र यह चौकी नहीं हो सकती । इस चौकी की सीमा जहाँ खतम है उससे आगे तो आकाश ही मिलेगा । ऐसे ही जीव और पुद्गल का पिंड अन्य पदार्थ ये विद्यमान हैं तो इन पिंडों का अंत भी कहीं होगा । ये सब लोकाकाश के ही अंदर हैं । लोकाकाश के बाहर द्रव्यों की गति नहीं है, किंतु आकाश यहाँ वहाँ सर्वत्र व्यापक है, इस सम्यग्दर्शन के प्रकरण में जहाँ कि समस्त द्रव्यों का यथार्थ परिचय होने की प्रेरणा दी गई है उसमें इन सब पदार्थों का स्वरूप कहा जा रहा है । यह आकाश का स्वरूप बताया है, अब कालद्रव्य का वर्णन करते हैं ।