वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 427
From जैनकोष
अन्योन्यसंक्रमोत्पन्नो भाव: स्यात्सान्निपातिक: ।षड्विंशतिभेदभिन्नात्मा स षष्ठो मुनिभिर्मत: ॥427॥
जीव के सान्निपातिक भावों का निर्देश ― जीव के 5 भाव हैं – औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । इन 5 भावों के परस्पर संयोग से उत्पन्न हुए परिणाम हैं सान्निपातिक भाव । जैसे सन्निपात रोग होता है, वात पित्त बनकर हो, वात कफ मिलकर हो, वात पित्त कफ तीनों मिलकर हो । ऐसे ही इन 5 भावों के मेल से जो भाव उत्पन्न होता है वह छठे आदि किस्मों का भाव समझ लो, वह है सान्निपातिक भाव । कोई भी जीव ऐसा नहीं है कि जिसके कोई एक ही भाव हो । संसारी जीवों में भी कोई है क्या ? क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये दो भी संसारी जीवों के साथ रहेंगे, चाहे औपशमिक, क्षायिक न हों । सिद्धभगवान हो गए तो वहाँ भी केवल पारिणामिक नहीं रहा, उसके साथ उस क्षायिक भी है । तो दो भाव और दो से अधिक भावों के मेल से जो समझने की दृष्टि बनी है उस समझ में सान्निपातिक भाव भी बन जाता है । और, यह सान्निपातिक भाव 2 के मेल से, 3 के मेल से, 4 के मेल से और पाँचों के मेल से बनता है, सो ये सान्निपातिक भाव अनेक भेदरूप हो जाते हैं । जीवों के भावों का वर्णन करने से अनेक रहस्य और आचरण की पद्धति विदित होती है । औदयिक भाव से यह सिद्ध होता है कि कर्मों के उदय का निमित्त पाकर क्रोधादिक होते तो हैं, पर वे जीव के स्वतत्त्व हैं अर्थात् जीव के ही गुण के परिणमन हैं । वही कर्म ही परिणमनकर कई बन जायें ऐसा नहीं है । कर्मों के उदय का निमित्त पाकर यह जीव कषायरूप बन जाता है । इतना होने पर भी आत्मा का स्वभाव कभी बदलता नहीं है । वह शाश्वत एक रूप है । इस बात को बताने वाला पारिणामिक भाव है । औदयिक भाव होकर भी जीव का पारिणामिक भाव नहीं मिटता । तो क्षायिक भाव वह बताता है कि उदय से उपाधि के सन्निधान से उत्पन्न होने वाला जो भाव है उसका विनाश हो सकता है । कहीं अपने को रागरूप मानकर साहस न खो दें कि हम तो इसी तरह पिटने जन्मने मरने के लिए ही हैं, हमारा काम ही यह है, ऐसा श्रद्धान में न लायें, किंतु यह प्रतीति में रक्खें कि इस औदयिक भाव का विनाश हो सकता है और जिन उपाधियों का निमित्त पाकर यह औदयिक भाव होता है उन उपाधियों का क्षय हो सकता है । जहाँ क्षय की बात संभव है वहाँ उपशम की भी बात संभव है । जहाँ समूल नाश करने की बात बन सकती है वहाँ उसके उपशम की भी बात बन सकती है । और जब यह बात संभव है तो उदय भी हुआ, उदयाभावी क्षय भी हुआ, ऐसी मिश्रदशा भी संभव है । तो वह है क्षायोपशमिक भाव । यों 5 भावोंरूप यह जीव है ऐसा ध्यान के प्रकरण में ध्यान के अंगभूत सम्यग्दर्शन के अंतराधिकार में जीव के तत्त्व का वर्णन किया है ।