वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 431
From जैनकोष
प्रकृत्यादिविकल्पेन ज्ञेयो बंधश्चतुर्विध: ।ज्ञानावृत्यादिभेदेन सोऽष्टधा प्रथम: स्मृत: ॥431॥
कर्मबंध के प्रकार ― बंध होते हैं तो वहाँ भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की बात आ पड़ती है । बंध 4 प्रकार का है – प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध और अनुभाग बंध । द्रव्य याने पिंडरूप से जब देखें तब प्रदेशबंध ज्ञात होता है । यदि द्रव्यदृष्टि से समझ ली जिसे – प्रकृतिबंध ज्ञात हो तो प्रदेशबंध क्षेत्रदृष्टि से समझ लें । चूँकि यह बंधन है और बंधन होता है दो में, एक में बंधन नहीं हुआ करता, अतएव दो द्रव्यों का बंधन हुआ तब प्रदेशबंध हुआ । इस न्याय से तो प्रदेशबंध द्रव्यदृष्टि की देन है, द्रव्यदृष्टि से ज्ञात हुआ, और चूँकि प्रदेश एक क्षेत्र है, आकार है अत: प्रदेशबंध क्षेत्रदृष्टि से ज्ञात हुआ । दो क्षेत्रों का दो द्रव्यों का जो बंधन हुआ वह प्रदेशबंध है और दो प्रकृतियों का बंधन हुआ वह प्रकृतिबंध है । आत्मा की शुद्ध प्रकृति में अशुद्ध प्रकृति का बंधन बन गया अर्थात् स्वभाव में विभाव बन गया, स्वभाव तिरोहित हो गया । कम से कम दो समय और दो समय तो स्थिति होती ही नहीं है, बहुत अधिक समय होती है । एक समय के बिना अनेक समयों में जो बंध होता है वह स्थितिबंध है । एक समय के समागम को स्थितिबंध नहीं कहते । वह आस्त्रव है, उसे आना और जाना कहते हैं । आने जाने में बंधन नहीं है । आने जाने का एक समय का ही काम है, पर रोक दे तो एक समय से अधिक समय लगे बिना रुकता नहीं है । अत: अनेक समयों में स्थितिबंध हुआ, यों ही अनेक भावों में अनेक समयों का अनुभाग बंध हुआ अति जघन्य अनुभाग रहे वहाँ बंधन नहीं है । दशम गुणस्थान में जघन्य कषाय रहती है । वह कषाय कषायों का बंध नहीं करती । तो बंध के प्रकरण में इस श्लोक में प्रकार बताये हैं कि बंध 4 प्रकार का है – प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध और अनुभागबंध । प्रकृतिबंध तो है ज्ञानावरण आदिक । अमुक कर्म ज्ञानावरण को ढके, दर्शन को ढके, साता असाता को उत्पन्न कराये मोह कषाय उत्पन्न करे, शरीर में रोक रखे, जिससे नाना प्रकार के शरीरों की रचना बने, जिससे ऊँच नीच कुल व्यक्त हो, अभीष्टकार्य में विघ्न आये, ऐसी बातों का निमित्तभूत जो कर्म है उस कर्म में उस उस प्रकार की प्रकृति पड़ जाना इसका नाम प्रकृतिबंध है ।