वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 433
From जैनकोष
उत्कर्षेणापकर्षेण स्थितिर्या कर्मणां मता ।स्थितिबंध: स विज्ञेय इतरस्तत्फलोदय: ॥433॥
स्थितिबंध का स्वरूप ― उत्कृष्ट जघन्य अथवा मध्यम अनेक भेदों में घटते-बढ़ते हुए जो काल की मर्यादा है उसके बंध जाने का नाम स्थिति बंध है । जैसे भोजन करने पर उन परमाणुओं में स्थिति बन जाती है कि ये परमाणु जो कि खूनरूप परिणमेंगे वे इतने दिन रहेंगे, जो पसीनारूप परिणमेंगे वे इतने घंटे रहेंगे, जो माँस रूप परिणमेंगे वे और अधिक काल रहेंगे, जो हड्डीरूप परिणम जायेंगे वे और अधिक काल रहेंगे, ऐसे ही विभाव परिणामों के निमित्त से जो कर्मबंधन हो जाते हैं, उन कर्मवर्गणाओं में स्थितिबंध हो जाता है, इतने परमाणु ये इतने वर्ष रहेंगे, ये इतने वर्ष रहेंगे । तो ऐसे उत्कृष्ट, जघन्य और मध्य के भेदरूप बढ़ते घटते कर्मों की स्थिति को स्थितिबंध कहते हैं और कर्मों के फल का उदय होने का नाम अनुभागबंध है । जो फल देने की शक्ति है और जितने अंशों में फलदान शक्ति है, जो अनुभाग बंधा है उसके अनुरूप फल मिल जाये यही तो अनुभाग बंध का फल है । तो उन फलों में जो ये डिग्रियाँ बनी हैं कि ये इतने दर्जे तक इतनी शक्ति से फल देंगे, ये इतनी शक्ति से फल देंगे ऐसा अनुभाग बंध जानना अनुभाग बंध है । यहाँ तक प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध बताया, अब प्रदेशबंध बतला रहे हैं ।