वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 435
From जैनकोष
प्रागेव भावनातंत्रे निर्जरास्रवसंवरा: ।कथिता: कीर्त्तयिष्यामि मोक्षमार्गं सहेतुकम् ॥435॥
मोक्षमार्ग के सहेतुक वर्णन का संकल्प ― निर्जरा आस्रव और संवर का वर्णन पहिली ही भावना के प्रकरण में किया गया है । तो इस प्रकार आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा इन चार तत्त्वों का वर्णन यहाँ तक हुआ । जब ध्यान के योग्य मुनीश्वरों की प्रशंसा की गई है तो कैसे-कैसे ध्याता योगीश्वर प्रशंसनीय हैं उस प्रसंग में संवर का और निर्जरा का विशेष वर्णन हुआ था और वहीं प्रतिबंधरूप से आस्रव का भी वर्णन हुआ था । अब मोक्ष तत्त्व का वर्णन सहेतुक कर रहे हैं ।