वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 459
From जैनकोष
निशातं विद्धि निस्त्रिंशं भवारातिनिपातने ।
तृतीयमथवा नेत्रं विश्र्वतत्त्वप्रकाशने ॥459॥भवविध्वंसक तृतीय नेत्र ― संसाररूपी शत्रु का विनाश करने के लिए ज्ञान ही तो एक मुख्य खड्ग है । जैसे लोक में शस्त्र से शत्रु का विघात किया जाता है इसी प्रकार यहाँ प्राकृत में कह रहे हैं कि हमारे शत्रु हैं संसारभाव, जन्म-मरण, रागद्वेष मोहादिक भाव । इन सब शत्रुओं के नाश करने में समर्थ कोई शस्त्र है तो वह है तत्त्वज्ञान । यह ज्ञान ही समस्त लोक को प्रकाशित करने के लिए एक अद्भुत अनुपम तृतीय नेत्र है । जब तृतीय नेत्र उत्पन्न होता है तब यह महादेव कहलाता है । इससे पहिले आत्मा है, संसारी है, प्राणी है, जन्मरण का दु:ख सहता है । दो नेत्र तो सबके ही होते हैं । इन चर्मनेत्रों से तो जो हैं सभी देखते हैं किंतु एक आंतरिक तृतीय नेत्र ज्ञान जिसके प्रकट हो जाता है, केवलज्ञान हो जाता है तब वह देवाधिदेव कहलाता है । तो यह ज्ञान ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने के लिए तृतीय नेत्र है । इन इंद्रियों से जितना जो कुछ जानते हैं उससे अधिक तो एक आंतरिक ज्ञान द्वारा लोग समझते रहते हैं । किस-किस देश की बातें, कहाँ-कहाँ की कहानियाँ ये सब ज्ञान द्वारा ही समझ रहे हैं । यहाँ भी मन का रूप है, परोक्ष है और इंद्रिय द्वारा भी जब भी हम कुछ समझते हैं तो वहाँ भी साधकतम इंद्रियाँ नहीं हैं किंतु साधकतम तो ज्ञान ही है । प्रत्येक प्रमाण में साधकतम ज्ञान है । तो ज्ञान के द्वारा ही लोकालोक सब कुछ जाना जाता है । स्वर्ग है, नरक है, भगवान है, तीर्थंकर है, विदेहक्षेत्र है, इतने महापुरुष हुए हैं, इतने होंगे, जितनी जो कुछ भी जानकारीयाँ करते हैं वे सब इंद्रियों के द्वारा नहीं करते बल्कि ज्ञान के द्वारा करते हैं । वह ज्ञान हमारा मनरूप है, अंत:करण है । है तो आंतरिक बात तो यह परोक्ष है और जब कोई ज्ञानी पुरुष परोक्षता का उपकार नहीं करते, एक स्वयं सहजस्वरूप के अनुभव में लगते हैं तो उसके प्रताप से परोक्षता दूर होती है और प्रत्यक्षता प्रकट होती है । तो ज्ञान ही संसारसंकटों को नष्ट करने में समर्थ है और यह ज्ञान ही समस्त तत्त्वों के जानने में समर्थ है । ज्ञान के प्रताप की बात चल रही है । चूँकि ध्यान के अंग हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । उसी के सिलसिले में यहाँ सम्यग्ज्ञान का प्रताप कहा जा रहा है ।