वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 461
From जैनकोष
वेष्टयत्याऽऽत्मनात्मानमज्ञानी कर्मबंधनै: ।
विज्ञानी मोचयत्येव प्रबुद्ध: समयांतरे ॥461॥
अज्ञानी और विज्ञानी के बंध मोक्ष का विवरण ― ज्ञानी पुरुष अपने आपको अपने ही द्वारा कर्मरूपी बंधन से वेष्ठित कर लेते हैं । कर्म दो प्रकार के हैं ― भावकर्म और द्रव्यकर्म । तो यह प्राणी अज्ञान से, मोह से विषयकषायों के परिणाम करके रागद्वेष की ही विधि बनाकर अपने आपको स्वयं परतंत्र बना लेता है । वैसे कोई भी जीव किसी दूसरे के अधीन नहीं है । न पुरुष स्त्री के अधीन है, न स्त्री पुरुष के अधीन है, यों ही न पिता पुत्र के अधीन है और न पुत्र पिता के अधीन है, किंतु इन संसारी प्राणीयों में सब में राग मोह स्नेह बस रहा है सो अपनी ही रागपरिणति से ऐसे अधीन बन गए हैं कि उस राग के विषयभूत परिजन या धन कुटुंब आदिक को तजकर कहीं जा नहीं सकते ।
यह जीव निमित्त पाकर अपने आपकी परिणति से ही अपने आपको बेड़ लेता है । जैसे ध्वजा हवा का निमित्त पाकर अपने आपके ही तंतुओं से अपने आपको बाँध लेता है । ऐसे ही कर्मोदय का निमित्त मात्र पाकर यह आत्मा वस्तुत: बँधता है अपने आपके रागद्वेष से अपने आपमें ही । बड़ी परवशता है, कहाँ है परवशता भीतर में ? कल्पनाओं से अपनी ही तरंग उठाकर अपने आपमें ही परवशता का अनुभव किया जा रहा है । उस परवशता मानने के कारण विह्वलता अधिक हो रही है । हो क्या रहा है वहाँ ? अपने आपकी परिणति से अपने आपकी भूल में अपने आपका बंधन हो रहा है । बंधन करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है । तो अज्ञानी जीव अपने आपको अपने ही को कर्मरूप बंधन से बेड़ लेता है किंतु भेदविज्ञानी जीव किसी भी समय सावधान बनकर प्रबुद्ध होकर अपने को कर्मबंधन से छुड़ा लेते हैं ।
दु:ख का कारण भ्रम ― देखिये भैया ! भूल है तो बड़ा भारी दु:ख अनुभव करना पड़ता है और भूल मिटी कि समस्त दु:ख तुरंत समाप्त हो जाते हैं । जैसे कुछ अंधेरे उजेले में कहीं घर के कमरे में कोई रस्सी पड़ी है और आपको भ्रम हो जाये कि यह तो साँप है तो बड़ी विह्वलता बन जाती है । अब कैसे रहेंगे ? घर में यह साँप आ गया है, छुप जायेगा, फिर निकलेगा, कहीं काट न ले । बड़ी विह्वलता होती है । कदाचित् भाग भी जाये तो फिर आने की शंका मन में है । और, कोई कुछ थोड़ा अगर सताकर भगा दे तो बदला लेने के लिए फिर भी आ सकता है । आह बड़े विह्वल होते हैं । वह विह्वलता किसने पैदा की ? क्या किसी बाहरी वस्तु ने ? यदि साँप भी होता सही तो भी साँप से विह्वलता नहीं बनती और यहाँ तो साँप भी नहीं है कोने में रस्सी पड़ी है तो क्या उस रस्सी से विह्वलता निकल कर आयी है ? अपने आपमें ही अपनी कल्पनाएँ बनाकर अपने आपको विह्वल कर लेते हैं । थोड़ी देर बाद कुछ परिक्षा के भाव से समीक्षा निरखें और अंदाज हो जाये कि साँप तो नहीं मालूम होता, रस्सी है, और थोड़ी देर में दृढ़ निर्णय हो जाये कि रस्सी है तो विह्वलता सब दूर हो गयी । आकुलता किसने मिटाई ? जब आकुलता हुई थी तब भी रस्सी ने नहीं की और साँप भी होता तो भी साँप नहीं करता । और जब विह्वलता मिटी है तो किसी दूसरे ने नहीं मिटाई । अपने आपकी कल्पना का अपने आपमें आकुलता और परतंत्रता का यह जीव अनुभव कर लेता है और जब भेदविज्ञान हाता है, यह अकिंचित्कर है, बाह्य पदार्थ है ऐसा विदित हो जाता है तो विह्वलता दूर हो जाती है । जिसने साँप समझा था रस्सी को और अब रस्सी समझ में आ गई है तो क्या समझ में आ गया है उससे विह्वलता खतम हो गई ? यह रस्सी है ऐसा तो लोग कहते हैं, किंतु यह समझ में आ गया कि यह पदार्थ मेरा बिगाड़ करने वाला नहीं है, अकिंचित्कर है, यह मेरा कुछ नहीं कर सकता, यह भाव आया है भीतर में । रस्सी का बोध हुआ इसमें यह भाव छिपा है कि यह अकिंचित्कर है, मेरे में यह कुछ परिणमन नहीं कर सकता, काट नहीं सकता, प्राण नहीं हर सकता अकिंचित् करता का विश्वास है, अन्य कोई पदार्थ मेरा कुछ नहीं कर सकता तो विह्वलता खत्म और जब भूल होती है अर्थात् अन्य पदार्थों को अपने प्रति किंचित्कर मानते हैं, यह मेरे में कुछ बिगाड़ कर देगा, यह मेरे को सुख दे देगा, तो परपदार्थों को जब यह अपने में किंचित्कर मानता है तो इस भ्रम से दु:ख है ।
भेदविज्ञान से शुद्ध समाधान ― भेदविज्ञान के प्रताप से यह बात समझ में आ जाती है कि यह अकिंचित् कर है, समस्त पदार्थ अपने आपमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप में रहा करते हैं, उनका जो कुछ होता है उनके प्रदेशों में होता है, उनका प्रभाव अन्य पदार्थों में नहीं पहुँचता । जिसे लोग प्रभाव कहते हैं उसका अर्थ है पर का निमित्त पाकर यह उपादान इस रूप परिणम गया । ऐसा संबंध जहाँ निरखते हैं उसी का नाम प्रभाव है । किसी भी वस्तु का द्रव्य, गुण, पर्याय किसी अन्य में प्रवेश नहीं करता, यह वस्तु का त्रिकाल अकाट्य नियम है । लेकिन प्रभाव नाम किसका पड़ा ? जहाँ उपादान ऐसी योग्यता वाला हो कि किसी अनुकूल परपदार्थ का सन्निधान पाकर अपने आपमें कोई परिणमन कर लेता हो जिससे कुछ निमित्त उपादान का संबंध नियम नहीं बन सकता है, उस स्थिति को प्रभाव कहते हैं । किसी जज अफसर के पास वकील दसों बार जाता है, बड़े आदमी भी बेधड़क जाते हैं किंतु किसी गरीब देहाती का मुकदमा हो, कभी न आया हो तो वहाँ घुसते ही उसके हाथ पैर काँपने लगते हैं तो क्या उस पर जज का प्रभाव है ? अरे जज ने उसमें कुछ नहीं किया । वह खुद ना समझ था, उतना ज्ञानबल न था, उतनी पहुँच न थी सो अपनी ही कमजोरी से जज का सन्निधान पाकर मन में कल्पनाएँ बनाकर स्वयं थर्राने लगा । इसी को प्रभाव डालना कहा जाता है । परमार्थ से किसी भी वस्तु का द्रव्य गुण पर्याय किसी अन्य द्रव्य में नहीं पहुँचता । प्रभाव इन तीनों को छोड़कर अन्य चीज नहीं है । प्रभाव द्रव्य न हो, गुण न हो, पर्याय न हो तो फिर और क्या है ? प्रभाव द्रव्य है तो उसका उसही में, प्रभाव गुण का नाम है तो उसका उसही में, प्रभाव पर्याय का नाम है तो उसका उसही में । निमित्त नैमित्ति संबंध जरूर ऐसा है अर्थात् घटनाएँ अवश्य ऐसी होती है कि कोई अशुद्ध पदार्थ किसी भी अन्य अशुद्ध पदार्थ का सन्निधान पाकर अशुद्धरूप परिणमने लगता है, शुद्ध के लिए शुद्ध का निमित्त नहीं है । उपादान और निमित्त में एक तो हो शुद्ध और एक हो अशुद्ध तो भी निमित्तनैमित्तिक भाव नहीं बनता । तो जैसे अशुद्ध ने कदाचित् शुद्ध आत्मा को ध्यान करके उन्नतिशील हुआ तो वहाँ उस अशुद्ध आत्मा के लिए शुद्ध आत्मा निमित्त नहीं है, किंतु वह आश्रयभूत पदार्थ है । निमित्त में और आश्रय में फर्क है । जीव के प्रत्येक विभाव परिणमन में निमित्त कर्म की अवस्था है, शेष विषय आश्रय नोकर्म आदिक निमित्त से कहे जाते हैं वे आश्रयभूत तो जितने भी विभाव परिणमन होते हैं अशुद्ध उपादान में होते हैं और किसी अशुद्ध निमित्त को प्राप्त करके होते हैं । भेदविज्ञानी जीव ही स्वरूप स्वतंत्रता के मर्म से अपरिचित है । वह परमार्थत: समस्त अन्य पदार्थों को अपने प्रति अकिंचित्कर ही देखता है अतएव उसके विह्वलता नहीं है । सो भेदविज्ञानी जीव किसी काल में सावधान होकर अपने को कर्मबंधन से छुड़ा लेता है ।