वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 464
From जैनकोष
ज्ञानपूर्वमनुष्ठानं नि:शेषं यस्य योगिन: ।
न तस्य बंधमायाति कर्म कस्मिन्नपि क्षणे ॥464॥ज्ञानपूर्वक अनुष्ठान से बंध की निवृत्ति ― जिस मुनि के समस्त आचरण ज्ञानपूर्वक होते हैं उसे किसी भी काल में बंध नहीं होता । अज्ञानी के तो बहुत काल स्थिति बने तो विकट कर्मबंध होता है किंतु ज्ञानी को ऐसा कर्मबंध कभी नहीं होता । जिसने एक बार वस्तुस्वरूप का सही निर्णय कर लिया, प्रतीति में आ गयी तो अंत:सामान्यतया वह प्रकाश बना ही रहता है जिसके कारण उसके तीव्र कर्मबंध नहीं होता । मनुष्य जीवन पाकर सबसे बड़ा काम यह करने का पड़ा है ― अपने ही भीतर गुप्त ही गुप्त अपने में अपना ध्यान कर रहे हैं । राग-द्वेष मोह का परित्याग हो रहा है । अपने ज्ञानस्वरूप को निरख-निरखकर आनंदानुभव किया जा रहा है यह बात जिनके होती है वे हैं भाग्यशाली और पुण्यवंत । यह करना कर्तव्य है, इसी में बड़प्पन है, शेष सांसारिक बड़प्पन में क्या है ? आज इस देश में हैं तो दूसरे देशों का विरोध करते हैं और मरकर विदेश में पैदा हो गए तो यहाँ के लोगों से विरोध मानेंगे । तो थोड़ी सी जिंदगी है, इसमें इष्ट अनिष्ट के विकल्प होते हैं । इतना संबंध जरूर है कि देश में यदि सब तरह का संतुलन रहता है तो धर्मसाधन निर्विकल्परूप से कर सकते हैं, क्योंकि देश पर आपत्ति आ रही है तो उसका कुछ न कुछ प्रभाव साधुजनों तक पहुँचता है, यह तो ठीक है लेकिन अज्ञानभाव से सोचना महाविह्वलता का कारण है ।