वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 466
From जैनकोष
दुरिततिमिरहंसं मोक्षलक्ष्मीसरोजं, मदनभुजगमंत्रं चित्तमातंगसिंहम् ।
व्यसनघनसमीरं विश्र्तत्त्वैकदीपं, विषयशफरजालं ज्ञानमाराधय त्वं ॥466॥ज्ञानाराधना का उपदेश ―― हे भव्य जीव ! तू ज्ञान का आराधन कर, मैं ज्ञानमात्र हूँ, केवल ज्ञानपुंज हूँ, अमूर्त हूँ, निर्लेप हूँ, देह से भी विविक्त हूँ, केवलज्ञान भावरूप हूँ । यों अपने को ज्ञानमात्र की उपासना करें, क्योंकि ज्ञान पापांधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है । जितनी विडंबनाएँ हैं वे सब अज्ञान में हुआ करती हैं । विडंबनायें दूर हों इसका उपाय एक सम्यग्ज्ञान प्रकट करना ही है और यह ज्ञान मोक्षरूपी लक्ष्मी के निवास करने के लिए कमल के समान है । जैसे कमल में लक्ष्मी का निवास है । लोक में भी वे पुरुष सुखी नजर आते हैं जिन्हें किसी से न लेना, न देना, न अधिक बोलचाल, न फसाव । अध्यात्मक्षेत्र में केवल अपने आपके स्वरूप अनुभव करने वाला हो, इसके अतिरिक्त अन्य भावों में उपयोग न लगाता हो वह सुखी है । शुद्ध मोक्षमार्ग पर आरूढ़ है । सम्यग्ज्ञान कामरूपी सर्प को कीलने के लिए मंत्र के समान है । काम प्रसंग विषयवासना ये सर्प की तरह भयंकर हैं । जैसे सर्प डस लेता है ऐसे ही काम की व्यथा भी डस लेती है और सर्प का डसा तो एक बार मरता है, कामव्यथा का डसा हुआ इस जिंदगी में भी बेकार-सा जीवन रहता है और यह अनेक बार मरण करेगा अर्थात् संसार में रुलेगा तो रुलना मरण बिना तो नहीं होता । मरे, जन्म हो इसी के मायने है रुलना । तो यह ज्ञान भी ऐसे भयंकर कामव्यथा के सर्प को कील देता है । चित्त न लगाना पर की ओर, चित्त लगाना है अपने स्वरूप की ओर । ऐसा दृढ़ साहस जगता है तत्त्वज्ञान में । और, इस ही उपाय में वह कामव्यथा, वासना, इंद्रिय भोगविषय इन सबसे दूर हो जाते हैं । मनरूपी हस्ती को विलीन करने के लिए सिंह के समान है यह तत्त्वज्ञान । सब वस्तुयें अपने-अपने ही स्वरूप में नजर आने लगें यह तत्त्वज्ञान व्यसन, आपत्ति, कष्टरूपी मेघों को उड़ाने के लिए वायु के समान है । जैसे तीव्र हवा चले तो मेघों में क्या दम है ? यों ही उड़ जाते हैं । मेघों का आकार ऐसा समझिये जैसे यह कुहरा जब छा जाता है तो उसमें क्या दम है ? कोई वजन नहीं है, कुछ विशेष आघात नहीं है, कुहरे से आदमी पार होता चला जाता है ऐसे ही उन मेघों से हवाई जहाज, मनुष्य सभी पार होते चले जाते हैं । जैसे शिखरजी या और ऊँचे पहाड़ों पर कोई यात्री चलता है तो उस यात्री के कपड़े कुछ भीग जाते हैं, उन बादलों से उसे कुछ आघात नहीं पहुँचता है । तो जैसे ऐसे मेघों को उड़ाने में समर्थ हुवा है इसी प्रकार ये संसारी आपत्तियाँ, कष्ट इनमें कुछ दम नहीं है । ये कल्पना से माने हुए हैं । कोई परपदार्थ किसी रूप परिणम रहा है तो उसका मेरे से क्या संबंध ? पर कल्पना बनाते हैं और दु:खी होते हैं । यह क्यों यों कर रहा है ? तत्त्वज्ञान हुआ कि कष्ट तुरंत मिटा ।
ज्ञान होने पर आपत्तियों का विनाश ― ज्ञान होने पर कष्ट मिटने के लिए कुछ भी समय न चाहिए । जैसे जिस समय ज्ञायकस्वभाव निजआत्मा की दृष्टि हुई उसी समय कषायें निवृत्त होने लगती हैं, कुछ समय न चाहिए, ऐसे ही तत्त्वज्ञान जगा तो आपत्तियाँ तुरंत दूर हो जाती हैं । उसे भी कोई समय न चाहिए । यह ज्ञानतत्त्वों का प्रकाश करने के लिए दीपक के समान है । जैसे दीपक हो तो जहाँ चाहे चले जायें कोई बाधा नहीं आती, ऐसे ही तत्त्वज्ञान है तो कहीं उसे आपत्ति नहीं आती । इस तत्त्वज्ञान से ही सब विषयजाल नष्ट हो जाते हैं । इस ज्ञान का यत्न अधिकाधिक करें । तन, मन, धन, वचन सबका अधिकाधिक उपयोग करें तो ज्ञानार्जन के लिए क्योंकि ज्ञान कमाया हुआ, प्राप्त हुआ हमें वास्तव में काम देगा । और, अन्य पुद्गल संचय हो गया, अचानक प्राणपखेरू उड़ जाते हैं । किसी का क्या भरोसा रखते हो । भरोसा रखो केवल अपने स्वरूप का, कोई बम पड़े, मरे भी तो लो मैं पूरा का पूरा यहाँ से चला । दूसरी जगह पहुँच गया । क्या बिगाड़ हुआ ? स्वरूप का इतना तीव्र लगाव हो जाये तो उसे कष्ट कुछ नहीं । मरते समय कष्ट तो मोह का होता है । मरने का क्या कष्ट ? लो इस शरीर को छोड़ा और अन्य जगह चला । तो सम्यग्ज्ञान ही आत्मा का वास्तविक मित्र है, रक्षक है, गुरु है, देव है, सब कुछ है ।